सोमवार, 10 मार्च 2008
महिला ब्लॉगर्स को मिली अमर उजाला में जगह
अमर उजाला की महिला मैगजीन 'रूपायन' में सात मार्च को महिला ब्लॉगर्स पर पूरे दो पेज छपे हैं। सुजाता जी के इस लेख में छह महिला ब्लॉगर्स की फोटो भी छपी है। इनमें लिकिंत मन और मुझे कुछ कहना वाली नीलिमा और नीलिमा सुखिजा अरोडा, मनीषा पांडेय और बेजी समेत छह लोगों की फोटो भी छपी है। सभी को बधाई।
हिन्दी ब्लॉगिंग में स्त्रियाँ और स्त्रियों की ब्लॉगिंग
कहा जाता है कि ब्लॉगर बस ब्लॉगर है उसका कोई जेंडर नही होता । पर अब तक की ब्लॉगिंग के बारे में बनी समझ के हिसाब से यह लगने लगा है कि स्त्रियों के लिये ब्लॉगिंग वाकई खास है और इसे देखने समझने के लिये एक वैकल्पिक सौन्दर्यशास्त्र की दरकार है । एक पूर्वाग्रह ग्रस्त मानसिक खाँचे में इसे देखना सही मूल्यांकन नही हो पाएगा । हिन्दी के अब तक 2200 से 2500 के लगभग चिट्ठे जिनमे सक्रिय चिट्ठे 750-800 हैं ।और इनमें स्त्रियो के चिट्ठे जो अभी एक सैकडा भी पार नही कर पाए , लेकिन अपनी एक सशक्त उपस्थिति लगातार दर्ज करा रहे हैं । ब्लॉगवाणी से प्राप्त आँकडों के मुताबिक महिलाओं के चिट्ठों की संख्या 80 से 90 के बीच है । इनमें सक्रिय महिला ब्लॉगर केवल 30-32 के लगभग हैं उनमें भी गद्य लिखने वाली ब्लॉगर्स लगभग 15 से 20 ही हैं ,बाकी केवल काव्य लिखती हैं ।
। इनमें कुछ प्रमुख ब्लॉगर्स हैं – बेजी , नीलिमा ,घुघुती बासुती,मनीषा पांडेय ,प्रत्यक्षा,पारुल , नीलिमा सुखीजा अरोडा ,ममता ,अनुराधा श्रीवास्तव ,लावण्या शाह , अनिता कुमार ,आभा ,मीनाक्षी , निशामधुलिका ,स्वप्नदर्शी ,रचना ,रंजना ,सीता खान । शोभा महेन्द्रू ,पूनम पांडेय और रश्मि भी यदा कदा लिखती हैं ।जैसे दुनिया के अन्य किसी क्षेत्र में स्त्री की उपस्थिति है लगभग वही यहाँ भी है । फिर भी हिन्दी ब्लॉगिंग स्त्री के लिये खास है और ब्लॉगिंग मे स्त्री की उपस्थिति खास है । हाँलाकि यह स्थिति तब है जबकि पिछ्ले एक साल में स्त्री ब्लॉगर्स की संख्या मे तेज़ी से इज़ाफा हुआ है पर महत्वपूर्ण यह है कि जो नियमित रूप से सक्रिय हैं वे क्या लिख रही है।
स्त्री के लिये ब्लॉगिंग के मायने कुछ इसलिये भी अलग हो जाते हैं कि ऐसा अकेला माध्यम है जो एक आम स्त्री को आत्माभिव्यक्ति के अवसर देती है बिना किन्हीं भौतिक दिक्कतों के और ऐसे समाज में जहाँ उसके लिये खुद को अभिव्यक्त करने के अवसर और तरीके बहुत सीमित हों । ऐसे में ब्लॉग्स्फियर पर स्त्रियाँ विविध विषयी लेखन कर रही हैं। कविताएँ रच रही हैं । विमर्श कर रही हैं । बाज़ार को देख रही हैं उसकी नब्ज़ पकद रही हैं ।संसार रच रही हैं । संसार को समझ रही हैं । बोल रही हैं । सम्वाद कर रही हैं शास्त्रीय संगीत में स्नातकोत्तर पारुल अपने ब्लॉग “पारुल चान्द पुखराज का ” में गज़लें और नगमों के पॉडकास्ट देती हैं ।प्रत्यक्षा अपने ब्लॉग में जीवन की सच्चाइयों से जुडी अनुभूतियों को कहानी कविता और गद्य में रचनात्मक अभिव्यक्ति देती हैं ।नीलिमा चौहान अपने ब्लॉग “लिंकित मन” में ब्लॉग पर किये गये शोध सम्बन्धित लेखन करती हैं और अपने अन्य ब्लॉग “आँख की किरकिरी’ में स्त्री व समाज के अन्य उपेक्षितों से जुडे भावनात्मक वैचारिक लेख लिखती हैं । घुघुती बासूती और बेजी भी अपने अनुभवों ,भावनाओं और विभिन्न विषय़ों पर अपना दृष्टिकोण व्यक्त करती हैं ।नीलिमा सुखीजा अरोडा मीडिया से जुडी हैं और मीडिया व स्त्री से जुडे सवालों को उठाती है । लावण्या शाह दुनिया घूमते घामते खींची गयी तस्वीरे और एकत्र की गयी जानकारियाँ देती है ।आभा स्वांत:सुखाय लिखती हैं ।
स्त्री जब ब्लॉगिंग करती है तो पुरुष मानस में शायद पहला सवाल यह आता है कि “फिर खान कौन बनाता है ?” खाना बनाना एक कर्म है जो बच्चे पालना , घर समेटना , नौकरी भी करना ,जैसे कई कर्मॉ को समेतता है । ब्लॉगिंग के लिये स्त्री को इन्ही सब सामाजिक पारिवारिक और व्यावसायिक दायित्वों के बीच से समय निकालना होता है । इसलिये ब्लॉग जगत में भी ऐसे प्रकरण यदा-कदा उठते रहे हैं । इसलिये अनुराधा श्रीवास्तव अपनी एक टिप्पणी मे लिखती हैं -
“कल्पना करिये की कोई गृहिणी कह रही है कि उसे ब्लाग पढने या पोस्ट करने जाना है तो सब उसे पागल समझेंगें।“
आभा की दिक्कत यही है कि उसे लेखन से प्यार है लेकिन “बेटा एक दिन वह स्कूल से लौटा और मैं अपनी पोस्ट को खतम करने में लगी थी...मैंने उससे दो मिनट रुकने को कहा...बेटे ने कहा हमारा ...घर बर्बाद हो गया है” ऐसे मे उसके सामने सवाल आता है कि उसका अपना घर ज़्यादा ज़रूरी है कि ब्लॉग ।
प्रत्यक्षा इस मानसिकता के प्रति अपना विरोध दर्ज करती हैं और स्त्री के प्रति रखी जाने वाली दोगली सोच का उद्घाटन करती हैं-
“आखिर कौन नहीं चाहता कि पत्नी कामकाजी या होममेकर , आपको घरेलू जंजालों से मुक्त रखे ताकि आप नेरूदा फेलूदा पढ़ते रहें ? आपकी इच्छायें ? और स्त्री की इच्छायें ? मैं ये चाहती हूँ ..तक भी कहने न दें ? आप कहेंगे मैं उदार हूँ , मैंने पत्नी को समान
अधिकार दिया है । इस “दिया” शब्द से कभी परेशानी होती है ? नहीं होती क्योंकि आप आत्ममुग्धता में नहाये हैं कि मैं कितना प्रोग्रेसिव हूँ .. न सिर्फ बोलता हूँ , करता भी हूँ “।
स्त्री के ब्लॉगिंग करने या पाब्लो नेरुदा को पढने के पीछे उसके अस्मितावान होने के अहसास का बोध है । गृहलक्ष्मी , गृहशोभा ,विमेंस इरा ,सरिता पढने में ऐसे खतरे कम हो जाते हैं ।घुघुती बासुती लिखती हैं - नोटपैड बहना ,क्यों डराती हो इतना ? चलो मिल बनाए गुझिया,जिसे देख सीखे अपनी गुड़िया,चलो लगाएँ उसे भी रसोई मेंक्या धरा है उसकी पढ़ाई में ?पढ़ना ही है तो कितना है पढ़ने को-पढ़ो ‘गृ ये सिखाती हैं तरीके पति को रिझाने के, बैंगन का नये तरीके का भर्ता बनाने केमुन्ने को मालिश कर सुलाने के, ( मुन्नी को नहीं )तरीके है पार्टी में मेकअप लगाने के, बच्चों को बहलाने के,रूठे पति को मनाने के,हशोभा’, ‘गृहलक्ष्मी’, ‘मेरी सहेली’ ,
तो हमें अपने नोटपैड पर लिखने का मन होता है कि-ब्लॉगिंग और पाब्लो नेरुदा पढने में कोई फर्क नही है .... “शॉपिंग के लिए जाती औरतें ,करवाचौथ का व्रत करती औरतें , सोलह सोमवार का उपास करती औरतें , होली पर गुझियाँ बनाती औरतें , पडोसिन से गपियाती औरतें -- अजीब नही लगतीं । बहुत सामान्य से चित्र हैं । लेकिन व्रत ,रसोई,और शॉपिंग छोड कर ब्लॉगिंग करती या पाब्लो नेरुदा पढती औरतें सामान्य बात नही । यह समाजिक अपेक्षा के प्रतिकूल आचरण है। आपात स्थिति है यह । ब्लॉगिंग और नेरुदा पति ही नही बच्चों के लिए भी रक़ीब हैं । यह डरने की बात है । अनहोनी होने वाली है । सुविधाओं की वाट लगने वाली है’
मनीषा पांडेय का ब्लॉग “बेदखल की डायरी” अपने नाम में ही स्त्री की सीमांतीय स्थिति का द्योतक है। बडी होती लडकियाँ लेबल में वे लडकियों के पालन-पोषण में ही छिपे उसकी कमज़ोरी के बीज ढूंढती हैं तो वहीं अच्छी लडकी के लेबल के तले लडकियों की घुटन को अभिव्यक्त करती हैं ।वे लिखती हैं –“ जो मिला, सबने अपने तरीके से अच्छी लड़की के गुणों के बारे में समझाया-सिखाया। और मैं हमेशा उन गुणों को आत्मसात करने के लिए कुछ हाथ-पैर मारती रही, क्योंकि कहीं-न-कहीं अपने मन की बात, अपनी असली इच्छाएं कहने में डरती हूं, क्योंकि मुझे पता है कि वो इच्छाएं बड़ी पतनशील इच्छाएं हैं, और सारी प्रगतिशीलता और भाषणबाजी के बावजूद मुझे भी एक अच्छी लड़की के सर्टिफिकेट की बड़ी जरूरत है। हो सकता है, अपनी पतनशील इच्छाओं की स्वीकारोक्ति के बाद कोई लड़का, जो मुझसे प्रेम और शादी की कुछ योजनाएं बना रहा हो, अचानक अपने निर्णय से पीछे हट जाए। “
कैसी स्त्री आज़ाद है या प्रगतिशील है ? यह प्रश्न वास्तव में कितना निरर्थक है इसे बताते हुए बेजी कहती हैं कि -ऑफिस जाती, कार चलाती आत्मनिर्भर औरत आज़ाद है ...कोई जरूरी नहीं है....घर में बैठ,साड़ी पहनी ,खाना बनाती अपने बच्चों की परवरिश करती औरत परतंत्र हो यह भी जरूरी नहीं है.....प्रतीक मात्र हैं...जिनसे कुछ सिद्ध नहीं होता..है ।स्त्रियों में इस बात की चिंता दिखाई देती है कि स्त्री को अभी स्वयम को ही स्त्रियोचित से मुक्ति पानी है । नीलिमा चौहान लिखती हैं- “स्त्री का परंपरागत संसार बडा विचित्र भी है और क्रूर भी है -यहां उसकी सुविधा ,अहसासों , सोच के लिए बहुत कम स्पेस है !गहने कपडे और यहां तक कि वह पांव में क्या पहनेगी में वह अपनी सुविधा को कोई अहमियत देने की बात कभी सोच भी नहीं पाई ! अपने आसपास की लडकियों महिलाओं के पहनावे की तरफ देखते हैं तो उनकी जिंदगी की विडंबना साफ दिखाई देती है ! परंपरागत महौल परंपरागत महौल में पली बढी यह स्त्री अपने दर्शन में स्पष्ट होती है --कि उसका जीवन सिर्फ पर सेवा और सबकी आंखों को भली लगने के लिए हुआ है ! छोटी बच्चियां घर- घर , रसोई -रसोई ,पारलर-पारलर खेलकर इसी सूत्र को अपनी जिंदगी का हिस्सा बना लेने की ट्रेनिंग ले रही होती हैं .......ठीक उसी समय जब उसकी उम्र के लडके गन या पिस्तौल से मर्दानगी के पाठ पढ रहे होते हैंपर अपने संधर्ष में अपने ही साथ नहीं हैं ये पैरों की हील ,ये पल्लू ,ये लटकन , ये नजाकत ! कहां से आ जाएगी बराबरी”
ब्लॉगिंग में स्त्रियों के लिये एक बडी सुविधा अनाम रह कर लिखने की है । ऐसे समाज में जहाँ अपनी इच्छाओं की अभिव्यक्ति स्त्री के चरित्र पर उंगली उठाने वालों को उकसाती हैं ,ब्लॉगिंग उसे इस बात की सहूलिय देती है कि वह अनाम होकर अपने विचारों और अनुभवों को अभिव्यक्त कर सके ।स्वप्नदर्शी अपना ब्लॉग इसी छ्द्मनाम से ही लिखती हैं ।दरअसल ब्लॉग जहत का ढांचा भी हमारी संरचना का एक हिस्सा भर ही है ! इसलिए यहां स्त्री विमर्श और संघर्ष के मुद्दों का उठना-गिरना -गिरा दिया जाना -हाइजैक कर दिया जाना -कुतर्की, वेल्ली और छुट्टी महिलाओं का जमावडा करार दे दिया जाना ---जैसी अनेक बातों का होना बहुत सहज सी प्रतिक्रिया माना जाना चाहिए !इस लिहाज़ से “चोखेर बाली ” जैसे सामुदायिक ब्लॉग का आना और उसे नज़रअन्दाज़ किये जाने की कोशिश को देख कर हमारे सामने ब्लॉग जगत का स्त्री के प्रति असंवेदनशील नजरिया डीकोड हुए बिना नहीं नहीं रहता !”चोखेर बाली” {आँख की किरकिरी sandoftheeye.blogspot.com }स्त्रियों का ऐसा मंच है जहाँ वे खुद से जुडे मुद्दों और सवालों को कुछ आपबीती कुछ जगबीती के अन्दाज़ में कहती है । आज भी समाज जहाँ ,जिस रूप में उपस्थित है - स्त्री किसी न किसी रूप में उसकी आँखों को निरंतर खटकती है जब वह अपनी ख्वाहिशों को अभिव्यक्त करती है ; जब जब वह अपनी ज़िन्दगी अपने मुताबिक जीना चाह्ती है , जब जब वह लीक से हटती है । जब तक धूल पाँवों के नीचे है स्तुत्य है , जब उडने लगे , आँधी बन जाए ,आँख में गिर जाए तो बेचैन करती है । उसे आँख से निकाल बाहर् करना चाहता है आदमी । कुछ पुरुष सहयोग और कुछ समर्थ में तो कुछ इस अन्दाज़ से यहाँ आते हैं कि “देखें ये स्त्रियाँ कुल मिला कर क्या चाहती हैं ’अभी शुरुआत भर है । अभी मंज़िलें ढूंढनी बाकी हैं । बातों सवालों विवादों के रास्ते सम्वाद तक भी पहुँचना है और खास बात है कि ब्लॉग पर स्त्रियो को अपनी मध्यमवर्गीय चिंताओं से ऊपर उठकर आम औरत की आवाज़ को भी सुनना और कहना है ।
- मुख्य महिला चिट्ठाकारों के चिट्ठों के वेब पते
- Beji-viewpoint.blogspot.com
- bakalamkhud.blogspot.com
- pratyaksha.blogspot.com
- linkitmann.blogspot.com
- ghughutibasuti.blogspot.com
- parulchaandpukhraajkaa.blogspot.com
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- auratnama.blogspot.com
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