बुधवार, 30 अप्रैल 2008

धीरे-धीरे छा जाएगा ब्लॉगवाद

मोहल्‍ला वाले अविनाशजी ने एनडीटीवी की वेबसाइट एनडीटीवी खबर पर यह लेख लिखा है, आप लोगों की सुविधा के लिए यह यहां हूबहू दिया जा रहा है। आप इसे एनडीटीवी खबर पर भी पढ सकते हैं।
सृजनशिल्पी हिन्दी के शुरुआती ब्लॉगर हैं, संसद भवन में नौकरी करते हैं। असल नाम कुछ और है और ज़ाहिर न करने की नैतिक मजबूरी नौकरी से जुड़ी है। घुघूती बासूती गुजरात के एक शहर में रहती हैं। 60 पार की यह महिला कई गंभीर व्याधियों से जूझ रही हैं और ब्लॉगिंग उनके लिए पीड़ा हरने वाले औजार की तरह है। वह अपने ब्लॉग पर कविताएं लिखती हैं और अपने समय से बातचीत करते हुए कई सारे सवाल भी खड़े करती हैं। अनामदास लंदन में पत्रकार हैं और हिन्दी में उनका ब्लॉग सबसे संजीदा और साफ-सुथरा माना जाता है। एक आस्तीन का अजगर है, जो अखाड़े का उदास मुगदर के नाम से ब्लॉग चलाते हैं। कहां रहते हैं, क्या करते हैं, किसी को नहीं पता, लेकिन इन दिनों प्रेम कथाओं की बेहद मार्मिक सीरीज़ की वजह से वह ख़ूब चर्चा में हैं।
ये तमाम नाम हिन्दी ब्लॉगिंग के वे चेहरे हैं, जो लोगों के सामने एक समानांतर रेखा के रूप में ज़ाहिर हैं। इनके अलावा सैकड़ों ऐसे लोग हैं, जो मूल नाम की केंचुल उतारकर अपरिचित-अनाम नामों से ब्लॉगिंग की पगडंडी पर टहल रहे हैं। नाम-गाम-पता वाली किताबी दुनिया से अलग अंतर्जाल की आभासी दुनिया में ये ख़ामोशी से खुद को अभिव्यक्त करते रहना चाहते हैं। इनमें से ज्‍यादातर अंग्रेज़ी अच्छी-तरह जानने-समझने वाले लोग हैं, लेकिन मादरी ज़बान में अपने अदृश्य एकांत को लिखना इन्हें सुख देता है, इसलिए ये हिन्दी में ब्लॉगिंग करते हैं।
ताक़तवर हो चले मीडिया की जगज़ाहिर सीमाओं के बीच ब्लॉग ऐसा हथियार है, जिसकी चाभी चंद लोगों के हाथ में नहीं है। यह एक सामाजिक हथियार है और अपनी बात कहने के लिए सबसे अधिक लोकतांत्रिक मंच, जहां फिलहाल न माधो से लेना पड़ता है, न ऊधो को देना पड़ता है। 2004 में जब सुनामी आई थी, इसकी ताक़त का अंदाज़ा हुआ था। जान-माल के नुक़सान की सरकारी गिनतियों के अलावा सच तक पहुंचने का कोई स्रोत नहीं था। ऐसे में कुछ लोगों ने अपने साथ गुज़र रही दिक्कतों को ब्लॉग पर लिखना शुरू किया। तब जाकर सुनामी की डरावनी कहानियों के हज़ारों पाठ दुनिया के सामने थे।
'90 के दशक में ब्लॉगिंग दुनिया के सामने आई, लेकिन हिन्दी में यह इसी सदी की घटना है। 21 अप्रैल, 2003 को आलोक कुमार नामक एक सज्जन ने बेंगलुरू में हिन्दी का पहला ब्लॉग लिखा। पहला वाक्य था, नमस्ते, क्या आप हिन्दी देख पा रहे हैं। यह एक भाषा के लिए उम्मीद की सबसे पहली रोशनी थी। इससे पहले कुछ वेबसाइट थीं, जो हिन्दी फॉन्ट का इस्तेमाल करती थीं, लेकिन वे फॉन्ट यूनिकोड नहीं थे, यानि उन्हें देखने के लिए आपको फॉन्ट डाउनलोड करना पड़ता था। अंग्रेज़ी कहीं भी आसानी से कॉपी-पेस्ट हो जाते हैं, लेकिन हिन्दी में यह मुश्किल था। हिन्दी का यूनिकोड वर्ज़न आ जाने के बाद यह आसान हो गया, लेकिन सवाल यह था कि एक्सएमएल और एचटीएमएल भाषा वाले अंग्रेज़ियत से भरे अंतर्जाल में सूरजमुखी की तरह उग आए ब्लॉग शब्द को हिन्दी में क्या कहा जाए?
24 जुलाई, 2003 को आलोक कुमार लिखते हैं, 'कहीं दूर जब दिन ढल जाए... गाना बज रहा है और मैं लिख रहा हूं ब्लॉग। यार ब्लॉग की हिन्दी क्या होगी, अभी तक नहीं सोच पाया। चलो, दूसरी तरह से सोचते हैं। मैं अपनी दादी को कैसे समझाऊंगा कि यह क्या है? मशीनी डायरी? शायद। वैसे दोनों शब्द अंग्रेज़ी के हैं।' एक शब्द खोजा गया, चिट्ठा, इसीलिए अगर आप हिन्दी ब्लॉगिंग के शुरुआती पन्नों को पलटेंगे तो आपको ये शब्द बार-बार मिलेंगे। रवि रतलामी, फुरसतिया, मसिजीवी, ई-स्वामी, उड़नतश्तरी जैसे ब्लॉगर अब भी चिट्ठा शब्द का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन 2007 यानि पिछले साल जब भारी तादाद में लोगों ने हिन्दी में ब्लॉग बनाए, चिट्ठा शब्द धीरे-धीरे धुंधला पड़ गया।
आज हिन्दी में चार हजार से ज्यादा ब्लॉग है। 2005 के दिसंबर में यह संख्या कुछ सौ की थी। एक टीवी चैनल से जुड़े मेरे पत्रकार मित्र दिलीप मंडल को उम्मीद है कि यह संख्या 2008 में कम से कम दस हज़ार हो जाएगी। अपने ब्लॉग रिजेक्ट माल पर वह लिखते हैं, 'टेक्नोलॉजी जब आसान होती है, उसे अपनाने वाले दिन दोगुना, रात चौगुना बढ़ते हैं। मोबाइल फोन को देखिए। एफएम को देखिए। हिन्दी ब्लॉगिंग फॉन्ट की तकनीकी दिक्कतों से आज़ाद हो चुकी है, लेकिन इसकी ख़बर अभी दुनिया को हुई नहीं है।' अभी बाज़ार की दिलचस्पी हिन्दी ब्लॉगिंग में नहीं है। वजह साफ है, कम ब्लॉगर, कम पाठक। लेकिन जिस तेज़ी से यह संख्या बढ़ रही है और जिस तेज़ी से बड़े घराने हिन्दी में वेबसाइट ला रहे हैं, उससे साफ़ लग रहा है कि हिन्दी सिनेमा और लोक संगीत के बाद अगर सबसे अधिक पॉपुलर कोई इवेन्ट होने जा रहा है, तो वह है ब्लॉग। तब हिन्दी में सिर्फ ब्लॉगिंग करके भी रोज़ी-रोटी कमाई जा सकेगी।
अंग्रेज़ी में कई लोग हैं, जो सिर्फ़ ब्लॉगिंग करके कमा-खा रहे हैं। लैबनॉल ब्लॉग के मॉडरेटर अमित अग्रवाल ने एक बार अपने ब्लॉग पर ख़बर दी कि वह रोज़ाना क़रीब एक हज़ार डॉलर कमाते हैं। उनकी ख़बर की तस्दीक़ गूगल एडसेंस ने भी दी, जो अंतर्जाल पर विज्ञापन बांटने वाली सबसे बड़ी एजेंसी है। ज़ाहिर है, यह रक़म अंग्रेज़ी में ही कमाई जा सकती है। लैबनॉल की ई-मेल ग्राहक संख्या 20000 के आसपास है और अंग्रेज़ी में लैबनॉल जैसे कई ब्लॉग हैं। लेकिन हिन्दी में सबसे अधिक ई-मेल ग्राहक संख्या वाला ब्लॉग रवि रतलामी है और आपको यह जानकर हैरानी होगी कि ये संख्या 200 के आसपास है।

सोमवार, 10 मार्च 2008

महिला ब्‍लॉगर्स को मिली अमर उजाला में जगह


अमर उजाला की महिला मैगजीन 'रूपायन' में सात मार्च को महिला ब्‍लॉगर्स पर पूरे दो पेज छपे हैं। सुजाता जी के इस लेख में छह महिला ब्‍लॉगर्स की फोटो भी छपी है। इनमें लिकिंत मन और मुझे कुछ कहना वाली नीलिमा और नीलिमा सुखिजा अरोडा, मनीषा पांडेय और बेजी समेत छह लोगों की फोटो भी छपी है। सभी को बधाई।

हिन्दी ब्लॉगिंग में स्त्रियाँ और स्त्रियों की ब्लॉगिंग
कहा जाता है कि ब्लॉगर बस ब्लॉगर है उसका कोई जेंडर नही होता । पर अब तक की ब्लॉगिंग के बारे में बनी समझ के हिसाब से यह लगने लगा है कि स्त्रियों के लिये ब्लॉगिंग वाकई खास है और इसे देखने समझने के लिये एक वैकल्पिक सौन्दर्यशास्त्र की दरकार है । एक पूर्वाग्रह ग्रस्त मानसिक खाँचे में इसे देखना सही मूल्यांकन नही हो पाएगा । हिन्दी के अब तक 2200 से 2500 के लगभग चिट्ठे जिनमे सक्रिय चिट्ठे 750-800 हैं ।और इनमें स्त्रियो के चिट्ठे जो अभी एक सैकडा भी पार नही कर पाए , लेकिन अपनी एक सशक्त उपस्थिति लगातार दर्ज करा रहे हैं । ब्लॉगवाणी से प्राप्त आँकडों के मुताबिक महिलाओं के चिट्ठों की संख्या 80 से 90 के बीच है । इनमें सक्रिय महिला ब्लॉगर केवल 30-32 के लगभग हैं उनमें भी गद्य लिखने वाली ब्लॉगर्स लगभग 15 से 20 ही हैं ,बाकी केवल काव्य लिखती हैं ।
। इनमें कुछ प्रमुख ब्लॉगर्स हैं – बेजी , नीलिमा ,घुघुती बासुती,मनीषा पांडेय ,प्रत्यक्षा,पारुल , नीलिमा सुखीजा अरोडा ,ममता ,अनुराधा श्रीवास्तव ,लावण्या शाह , अनिता कुमार ,आभा ,मीनाक्षी , निशामधुलिका ,स्वप्नदर्शी ,रचना ,रंजना ,सीता खान । शोभा महेन्द्रू ,पूनम पांडेय और रश्मि भी यदा कदा लिखती हैं ।जैसे दुनिया के अन्य किसी क्षेत्र में स्त्री की उपस्थिति है लगभग वही यहाँ भी है । फिर भी हिन्दी ब्लॉगिंग स्त्री के लिये खास है और ब्लॉगिंग मे स्त्री की उपस्थिति खास है । हाँलाकि यह स्थिति तब है जबकि पिछ्ले एक साल में स्त्री ब्लॉगर्स की संख्या मे तेज़ी से इज़ाफा हुआ है पर महत्वपूर्ण यह है कि जो नियमित रूप से सक्रिय हैं वे क्या लिख रही है।
स्त्री के लिये ब्लॉगिंग के मायने कुछ इसलिये भी अलग हो जाते हैं कि ऐसा अकेला माध्यम है जो एक आम स्त्री को आत्माभिव्यक्ति के अवसर देती है बिना किन्हीं भौतिक दिक्कतों के और ऐसे समाज में जहाँ उसके लिये खुद को अभिव्यक्त करने के अवसर और तरीके बहुत सीमित हों । ऐसे में ब्लॉग्स्फियर पर स्त्रियाँ विविध विषयी लेखन कर रही हैं। कविताएँ रच रही हैं । विमर्श कर रही हैं । बाज़ार को देख रही हैं उसकी नब्ज़ पकद रही हैं ।संसार रच रही हैं । संसार को समझ रही हैं । बोल रही हैं । सम्वाद कर रही हैं शास्त्रीय संगीत में स्नातकोत्तर पारुल अपने ब्लॉग “पारुल चान्द पुखराज का ” में गज़लें और नगमों के पॉडकास्ट देती हैं ।प्रत्यक्षा अपने ब्लॉग में जीवन की सच्चाइयों से जुडी अनुभूतियों को कहानी कविता और गद्य में रचनात्मक अभिव्यक्ति देती हैं ।नीलिमा चौहान अपने ब्लॉग “लिंकित मन” में ब्लॉग पर किये गये शोध सम्बन्धित लेखन करती हैं और अपने अन्य ब्लॉग “आँख की किरकिरी’ में स्त्री व समाज के अन्य उपेक्षितों से जुडे भावनात्मक वैचारिक लेख लिखती हैं । घुघुती बासूती और बेजी भी अपने अनुभवों ,भावनाओं और विभिन्न विषय़ों पर अपना दृष्टिकोण व्यक्त करती हैं ।नीलिमा सुखीजा अरोडा मीडिया से जुडी हैं और मीडिया व स्त्री से जुडे सवालों को उठाती है । लावण्या शाह दुनिया घूमते घामते खींची गयी तस्वीरे और एकत्र की गयी जानकारियाँ देती है ।आभा स्वांत:सुखाय लिखती हैं ।

स्त्री जब ब्लॉगिंग करती है तो पुरुष मानस में शायद पहला सवाल यह आता है कि “फिर खान कौन बनाता है ?” खाना बनाना एक कर्म है जो बच्चे पालना , घर समेटना , नौकरी भी करना ,जैसे कई कर्मॉ को समेतता है । ब्लॉगिंग के लिये स्त्री को इन्ही सब सामाजिक पारिवारिक और व्यावसायिक दायित्वों के बीच से समय निकालना होता है । इसलिये ब्लॉग जगत में भी ऐसे प्रकरण यदा-कदा उठते रहे हैं । इसलिये अनुराधा श्रीवास्तव अपनी एक टिप्पणी मे लिखती हैं -
“कल्पना करिये की कोई गृहिणी कह रही है कि उसे ब्लाग पढने या पोस्ट करने जाना है तो सब उसे पागल समझेंगें।“
आभा की दिक्कत यही है कि उसे लेखन से प्यार है लेकिन “बेटा एक दिन वह स्कूल से लौटा और मैं अपनी पोस्ट को खतम करने में लगी थी...मैंने उससे दो मिनट रुकने को कहा...बेटे ने कहा हमारा ...घर बर्बाद हो गया है” ऐसे मे उसके सामने सवाल आता है कि उसका अपना घर ज़्यादा ज़रूरी है कि ब्लॉग ।
प्रत्यक्षा इस मानसिकता के प्रति अपना विरोध दर्ज करती हैं और स्त्री के प्रति रखी जाने वाली दोगली सोच का उद्घाटन करती हैं-
“आखिर कौन नहीं चाहता कि पत्नी कामकाजी या होममेकर , आपको घरेलू जंजालों से मुक्त रखे ताकि आप नेरूदा फेलूदा पढ़ते रहें ? आपकी इच्छायें ? और स्त्री की इच्छायें ? मैं ये चाहती हूँ ..तक भी कहने न दें ? आप कहेंगे मैं उदार हूँ , मैंने पत्नी को समान
अधिकार दिया है । इस “दिया” शब्द से कभी परेशानी होती है ? नहीं होती क्योंकि आप आत्ममुग्धता में नहाये हैं कि मैं कितना प्रोग्रेसिव हूँ .. न सिर्फ बोलता हूँ , करता भी हूँ “।
स्त्री के ब्लॉगिंग करने या पाब्लो नेरुदा को पढने के पीछे उसके अस्मितावान होने के अहसास का बोध है । गृहलक्ष्मी , गृहशोभा ,विमेंस इरा ,सरिता पढने में ऐसे खतरे कम हो जाते हैं ।घुघुती बासुती लिखती हैं - नोटपैड बहना ,क्यों डराती हो इतना ? चलो मिल बनाए गुझिया,जिसे देख सीखे अपनी गुड़िया,चलो लगाएँ उसे भी रसोई मेंक्या धरा है उसकी पढ़ाई में ?पढ़ना ही है तो कितना है पढ़ने को-पढ़ो ‘गृ ये सिखाती हैं तरीके पति को रिझाने के, बैंगन का नये तरीके का भर्ता बनाने केमुन्ने को मालिश कर सुलाने के, ( मुन्नी को नहीं )तरीके है पार्टी में मेकअप लगाने के, बच्चों को बहलाने के,रूठे पति को मनाने के,हशोभा’, ‘गृहलक्ष्मी’, ‘मेरी सहेली’ ,
तो हमें अपने नोटपैड पर लिखने का मन होता है कि-ब्लॉगिंग और पाब्लो नेरुदा पढने में कोई फर्क नही है .... “शॉपिंग के लिए जाती औरतें ,करवाचौथ का व्रत करती औरतें , सोलह सोमवार का उपास करती औरतें , होली पर गुझियाँ बनाती औरतें , पडोसिन से गपियाती औरतें -- अजीब नही लगतीं । बहुत सामान्य से चित्र हैं । लेकिन व्रत ,रसोई,और शॉपिंग छोड कर ब्लॉगिंग करती या पाब्लो नेरुदा पढती औरतें सामान्य बात नही । यह समाजिक अपेक्षा के प्रतिकूल आचरण है। आपात स्थिति है यह । ब्लॉगिंग और नेरुदा पति ही नही बच्चों के लिए भी रक़ीब हैं । यह डरने की बात है । अनहोनी होने वाली है । सुविधाओं की वाट लगने वाली है’
मनीषा पांडेय का ब्लॉग “बेदखल की डायरी” अपने नाम में ही स्त्री की सीमांतीय स्थिति का द्योतक है। बडी होती लडकियाँ लेबल में वे लडकियों के पालन-पोषण में ही छिपे उसकी कमज़ोरी के बीज ढूंढती हैं तो वहीं अच्छी लडकी के लेबल के तले लडकियों की घुटन को अभिव्यक्त करती हैं ।वे लिखती हैं –“ जो मिला, सबने अपने तरीके से अच्‍छी लड़की के गुणों के बारे में समझाया-सिखाया। और मैं हमेशा उन गुणों को आत्‍मसात करने के लिए कुछ हाथ-पैर मारती रही, क्‍योंकि कहीं-न-कहीं अपने मन की बात, अपनी असली इच्‍छाएं कहने में डरती हूं, क्‍योंकि मुझे पता है कि वो इच्‍छाएं बड़ी पतनशील इच्‍छाएं हैं, और सारी प्रगतिशीलता और भाषणबाजी के बावजूद मुझे भी एक अच्‍छी लड़की के सर्टिफिकेट की बड़ी जरूरत है। हो सकता है, अपनी पतनशील इच्‍छाओं की स्‍वीकारोक्ति के बाद कोई लड़का, जो मुझसे प्रेम और शादी की कुछ योजनाएं बना रहा हो, अचानक अपने निर्णय से पीछे हट जाए। “
कैसी स्त्री आज़ाद है या प्रगतिशील है ? यह प्रश्न वास्तव में कितना निरर्थक है इसे बताते हुए बेजी कहती हैं कि -ऑफिस जाती, कार चलाती आत्मनिर्भर औरत आज़ाद है ...कोई जरूरी नहीं है....घर में बैठ,साड़ी पहनी ,खाना बनाती अपने बच्चों की परवरिश करती औरत परतंत्र हो यह भी जरूरी नहीं है.....प्रतीक मात्र हैं...जिनसे कुछ सिद्ध नहीं होता..है ।स्त्रियों में इस बात की चिंता दिखाई देती है कि स्त्री को अभी स्वयम को ही स्त्रियोचित से मुक्ति पानी है । नीलिमा चौहान लिखती हैं- “स्त्री का परंपरागत संसार बडा विचित्र भी है और क्रूर भी है -यहां उसकी सुविधा ,अहसासों , सोच के लिए बहुत कम स्पेस है !गहने कपडे और यहां तक कि वह पांव में क्या पहनेगी में वह अपनी सुविधा को कोई अहमियत देने की बात कभी सोच भी नहीं पाई ! अपने आसपास की लडकियों महिलाओं के पहनावे की तरफ देखते हैं तो उनकी जिंदगी की विडंबना साफ दिखाई देती है ! परंपरागत महौल परंपरागत महौल में पली बढी यह स्त्री अपने दर्शन में स्पष्ट होती है --कि उसका जीवन सिर्फ पर सेवा और सबकी आंखों को भली लगने के लिए हुआ है ! छोटी बच्चियां घर- घर , रसोई -रसोई ,पारलर-पारलर खेलकर इसी सूत्र को अपनी जिंदगी का हिस्सा बना लेने की ट्रेनिंग ले रही होती हैं .......ठीक उसी समय जब उसकी उम्र के लडके गन या पिस्तौल से मर्दानगी के पाठ पढ रहे होते हैंपर अपने संधर्ष में अपने ही साथ नहीं हैं ये पैरों की हील ,ये पल्लू ,ये लटकन , ये नजाकत ! कहां से आ जाएगी बराबरी”

ब्लॉगिंग में स्त्रियों के लिये एक बडी सुविधा अनाम रह कर लिखने की है । ऐसे समाज में जहाँ अपनी इच्छाओं की अभिव्यक्ति स्त्री के चरित्र पर उंगली उठाने वालों को उकसाती हैं ,ब्लॉगिंग उसे इस बात की सहूलिय देती है कि वह अनाम होकर अपने विचारों और अनुभवों को अभिव्यक्त कर सके ।स्वप्नदर्शी अपना ब्लॉग इसी छ्द्मनाम से ही लिखती हैं ।दरअसल ब्लॉग जहत का ढांचा भी हमारी संरचना का एक हिस्सा भर ही है ! इसलिए यहां स्त्री विमर्श और संघर्ष के मुद्दों का उठना-गिरना -गिरा दिया जाना -हाइजैक कर दिया जाना -कुतर्की, वेल्‍ली और छुट्टी महिलाओं का जमावडा करार दे दिया जाना ---जैसी अनेक बातों का होना बहुत सहज सी प्रतिक्रिया माना जाना चाहिए !इस लिहाज़ से “चोखेर बाली ” जैसे सामुदायिक ब्लॉग का आना और उसे नज़रअन्दाज़ किये जाने की कोशिश को देख कर हमारे सामने ब्लॉग जगत का स्त्री के प्रति असंवेदनशील नजरिया डीकोड हुए बिना नहीं नहीं रहता !”चोखेर बाली” {आँख की किरकिरी sandoftheeye.blogspot.com }स्त्रियों का ऐसा मंच है जहाँ वे खुद से जुडे मुद्दों और सवालों को कुछ आपबीती कुछ जगबीती के अन्दाज़ में कहती है । आज भी समाज जहाँ ,जिस रूप में उपस्थित है - स्त्री किसी न किसी रूप में उसकी आँखों को निरंतर खटकती है जब वह अपनी ख्वाहिशों को अभिव्यक्त करती है ; जब जब वह अपनी ज़िन्दगी अपने मुताबिक जीना चाह्ती है , जब जब वह लीक से हटती है । जब तक धूल पाँवों के नीचे है स्तुत्य है , जब उडने लगे , आँधी बन जाए ,आँख में गिर जाए तो बेचैन करती है । उसे आँख से निकाल बाहर् करना चाहता है आदमी । कुछ पुरुष सहयोग और कुछ समर्थ में तो कुछ इस अन्दाज़ से यहाँ आते हैं कि “देखें ये स्त्रियाँ कुल मिला कर क्या चाहती हैं ’अभी शुरुआत भर है । अभी मंज़िलें ढूंढनी बाकी हैं । बातों सवालों विवादों के रास्ते सम्वाद तक भी पहुँचना है और खास बात है कि ब्लॉग पर स्त्रियो को अपनी मध्यमवर्गीय चिंताओं से ऊपर उठकर आम औरत की आवाज़ को भी सुनना और कहना है ।
- मुख्य महिला चिट्ठाकारों के चिट्ठों के वेब पते
- Beji-viewpoint.blogspot.com
- bakalamkhud.blogspot.com
- pratyaksha.blogspot.com
- linkitmann.blogspot.com
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- parulchaandpukhraajkaa.blogspot.com
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- lavanyashah.com
- mamtatv.blogspot.com
- nishamadhulika.com

सोमवार, 25 फ़रवरी 2008

भास्‍कर में आखों की किरकिरी


दैनिक भास्‍कर जयपुर में सोमवार 25 फरवरी 2008 को विमर्श पेज पर चोखेर बाली की चर्चा हुई है। ब्‍लॉग बतंगड नाम का यह कॉलम हर सोमवार को प्रकाशित किया जा रहा है। पर संपादक या लेखक का नाम नहीं दिया गया है। आपकी सुविधा के लिए यह लेख पूरा दिया जा रहा है। चोखेरबाली की टीम को एक बार फिर बधाई।

आंखों की किरकिरी: चोखेरवाली
तय है कि ब्‍लॉग उदय का एक नया प्रयास कुछ
गुल जरूर खिलाएगा। ईमानदारी की चाशनी में
घुटी ऐसी कोशिश शुरू की है मनीषा पांडे ने अपने ब्‍लॉग
चोखेरवाली से। वह दिल से कहती हैं वे पतित होना
चाहती हैं भले ही इसके समानांतर अच्छी लड़की होने
के नाम से भावुक होकर आंसू टपकाती रहूं। मेरे जैसी
और ढेरों लड़कियां हो सकती हैं, जो अपनी पतनशीलता
को छिपाती फिरती हैं लेकिन अच्छी लड़की के सर्टिफिकेट
की चिंता में मैं दुबली नहीं होऊंगी। मनीषा ने कदम बढ़ाया
तो कई आंखें फटी रह गईं और मुंह बाये देख रही हैं कि
यह पतित पता नहीं क्‍या कर बैठे, पुरुष प्रधान समाज के
कस मानदंड की बखिया उधेड़ दे...लेकन अब कारवां
बन चुका है।
बदलाव की आहट सुनाई देने लगी है और जिन्हें नहीं
सुनाई देती उन्हें ये सुनने को मजबूर कर देंगी। उनके तेवर
कुछ ऐसे हैं कि जिन पुरुषों ने समाज की परिभाषाएं गढ़ी
हैं उनकी आंखों में अंगुलियां डालकर वे एलान करना
चाह रही हैं क तुम गलत हो। वे बताना चाह रही हैं कि
ठीक से हंस लेना केवल तुब्‍हारा ही हक नहीं, पर्दे में
रखकर तुमने गुनाह कया है। वे मांग रही हैं उस आजादी
को जिसे पुरुषों ने अपने घर की बांदी बना रखी है। वे
उन छोटी-छोटी बातों पर ध्यान दिलाती हैं कि क्‍यों घर
की लड़कयों को कहा जाता है छत पर नहीं जाओ, दुपट्टा
हमेशा सिर पर रखो, कसी से ज्यादा हंस-हंस कर बात
नहीं करो, मोहल्ले पर लड़कों की तरह न आया-जाया करो
या फिर घर से बाहर ज्यादा देर तक नहीं रहो...। असल
में मनीषा के बाद पुनीता, सस्ता शेर और फिर मेरी
कठपुतलियां... जैसे ब्‍लॉग उन बातों को कह रही हैं जो
वास्तव में अंधेरी कोठरी में पूर्णमा के चांद की रोशनी
फैला रही हैं। उनकी बातें एक सुहानी सुबह की ओर
इशारा करती हैं। जरा सोचिए इस्मत चुगताई ने 1935 में
उर्दू में `लिहाफ´ लिखी। तब इसे लेकर काफी विवाद हुआ
था। चुगताई ने उस समय ऐसी बातें कहने की हिम्‍मत
दिखाई जब आज से ज्यादा मुश्कलें थीं। 65 साल के
बाद उस पर फिर चर्चा हुई और सन् 2000 में जाकर
उसपर `फायर ´ फिल्म बनी। इसका भी काफी विरोध
हुआ लेकन वह राजनीतिक फायदे के लिए कया गया
विरोध ही कहा जाएगा। कुछ दिनों पहले प्रदर्शित `वाटर´
के साथ भी ऐसा ही हुआ। मतलब जब-जब नारी मुक्ति
की बात होगी तब-तब पुरुष मानसिकता वाले लोग यूं ही
विरोध करेंगे। अब ब्‍लॉग के द्वारा नारी मुक्ति की बातें फिर
की जा रही हैं। उनकी बातें सदियों के अन्याय को सामने
लाती हैं... सच में..।
अब छोटी-सी बात ही लीजिए ब्‍या महिलाएं बिना
बचपन के जवान हो जाती हैं। अब ठुमक-ठुमक चलत
रामचंद्र, बाजत पैजनियां.. पर केवल राम का ही हक ब्‍यों
है ब्‍या केवल कृष्ण ही बाल लीलाएं कर सकते हैं...माता
सीता या फिर राधा ब्‍यों नहीं? वास्तव में कई महान
विभूतियों ने अन्याय कया है।
अब कालिदास का अभिज्ञान शाकुंतलम उठा लीजिए
या फिर मेघदूत हर जगह नारी सौंदर्य का चित्रण है। उनकी
भावनाओं उनके ब्‍यालात को कोई जगह नहीं, ब्‍यों?
ब्रrापुराण में भी ऐसे चित्रण आपको मिल जाएंगे। कई
और पक्ष हैं.. बेटियों के ब्‍लॉग पर जब आप पुनीता से
`बेटियों के ब्‍लॉग´ पर मुखातिब होते हैं तो वे बड़ी
मासूमियत से कठोर सवाल पूछती हैं - बेटियां पराई क्‍यों
होती हैं? एक बेटी की मां का हलफनामा शीर्षक का
उनका लेख तो वास्तव में एक महिला के दर्द को शिद्दत
से बयां करता है। मोहल्ला जैसे कई प्रमुख ब्‍लॉगर इन पर
कान देने लगे हैं और यह बात उठी है कि प्रगतिशीलता
को पतनशीलता कहने की मानसिकता कितनी सही है।
कुल मिलाकर एक कोशिश हो रही है इन बातों को कहने
के लिए लाउडस्पीकर मुहैया कराने की जिससे बात सब
तक पहुंचे, लेकन शोर के रूप में नहीं, सार्थक अथोत में
और शब्‍दों के साथ। नारी मुक्ति की इस नई हवा को सच
में सलाम करने को जी चाहता है।

राजस्‍थान पत्रिका में बेटियों का ब्‍लॉग


राजस्‍थान पत्रिका जयपुर की महिला मैग्‍जीन परिवार में बुधवार 20 फरवरी को बेटियों के ब्‍लॉग पर पूरा एक फीचर छपा है।
आपके लिए यह पूरा की पूरा हुबहू दिया जा रहा है।
आपके पास भी ब्‍लॉग जगत से जुडी कोई खबर हो तो तुरंत सूचित करें।

रविवार, 24 फ़रवरी 2008

हाय रब्‍बा ये क्‍या हो गया


भाई लोगों ब्‍लॉग अपन के जयपुर में तगडा वाला लोकप्रिय हो गया है। डेली न्‍यूज अखबार ने रविवार 24 फरवरी को अपने परिशिष्‍ठ हमलोग में अपन के सुधाकर सोनीजी ने ब्‍लॉग लिखने के शौकिन चोर को पकडवा दिया है।
सुधाकरजी और हमलोग के संपादकजी को बधाई

सोमवार, 18 फ़रवरी 2008

भास्कर के विमशॅ में ब्लॉग-बतंगड़


दैनिक भास्कर जयपुर ने सोमवार १८ फरवरी से साहित्य पर एक विशेष पेज का प्रकाशन शुरू किया है। इसमें ब्लॉग बतंगड़ नाम का एक कॉलम भी शायद छपा है जिसका शीरषक है-चाहूं भी तो खोल नहीं सकती उस घर के दरवाजे--। इस लेख में रवि रतलामी के ब्लॉग पर रचना श्रीवास्तव की पोस्ट है। इसके अलावा इरफान और नसीरुद्दीन, कृपाशंकर का भी जिक्र है। ओमप्रकाश तिवारी के मीडिया नारद ब्लॉग पर फिल्मी गीतकारों और लेखकों को साहित्यकार का दरजा नहीं देने की बहस की भी चरचा है। इस लेख को आप फोटो पर क्लिक करके पूरा पढ़ सकते हैं।

शनिवार, 16 फ़रवरी 2008

बिजनेज स्‍टैंडर्ड हिंदी की पहली एंकर स्‍टोरी ही ब्‍लॉग पर


शनिवार 16 फरवरी को बिजनेस स्‍टैंडर्ड का हिंदी संस्करण रिलीज हुआ। पहले ही अंक में प्रंट पेज की एंकर स्‍टोरी ब्‍लॉग केंद्रित है। खबर का लब्‍बोलुबाव सेलिब्रिटिज के ब्‍लॉगर्स पर केंद्रित है। स्‍कैन्‍ड या ऑनलाइन होने के कारण इसकी इमेज आप तक नहीं पहुंचायी जा सकी है। कोशिश है कि कल यह कमी पूरी कर दूं। राजेश एस कुरुप की यह खबर हूबहू प्रकाशित की जा रही है।
अब उतर आए तारे जमीं पर
राजेश एस कुरूप
मुंबई, 15 फरवरी चाहे वह फिल्‍म हो या खेल, कला हो या साहित्‍य हर क्षेत्र की हस्तियों से मिलने के लिए लोग दीवानगी की हद तक पहुंच जाते हैं। इसके लिए वह मुंबई, कोलकाता या फिर सात समुंदर पार कहीं भी जाने या कैसी भी मुश्किलों को पार करने के लिए तैयार रहते हैं। उसके बाद भी कई बार उनकी हसरत पूरी नहीं हो पाती। मगर अब ऐसा नहीं है क्‍योंकि ये चमचमाते सितारे अब खुद उनके घर की सरजमीं पर आने लगे हैं। जिससे उनके इन दीवानों के लिए खुदाई मददगार बनकर आए हैं, ब्‍लॉग। यकीन नहीं आता तो राजेश शर्मा की ही मिसाल लीजिए, जो कभी शाहरुख खान की झलक पाने के लिए बांद्रा में उनके बंगले मन्‍नत के सामने घंटों खडे रहते थे। दीवानगरी की इंतहा पर पहुंच चुके इस शख्‍स को जिस दिन शाहरुख बंगले से निकलकर कार में चढते दिख जाते थे, तो उस दिन वह खुद को दुनिया का सबसे खुशकिस्‍मत आदमी समझने लगते थे। लेकिन मन्‍नत पर टकटकी लगा कर घंटो रहना अब उनके लिए भी गुजरे जमाने की बात हो चुकी। क्‍योंकि अब तो उनकी रोजाना शाहरुख से बातें होती हैं। शर्मा तो फिल्‍मों और अभिनय के बारे में उन्‍हें सलाह तक दे डालते हैं। और यह सब ठाणे में अपने घर में ही बैठकर करते हैं। इसी तरह एक और खान आमिर खान भी अपने ब्‍लॉग को कभी नहीं भूलते वह अपने ब्‍लॉग पर 50 संदेश डाल चुके हैं। वह इसके जरिए सामाजिक मसले उठाने से भी नहीं चूकते। जैसे, एक संदेश में उन्‍होंने पाइरेसी के खिलाफ आवाज उठाई। उन्‍होंने कहा, मैं उन लोगों से खफा हूं, जिन्‍होंने तोर जमीं पर फिल्‍म पाइरेटेड सीडी डीवीडी या केबल या किसी वेबसाइट पर देखी। बहरहाल, नामचीन लोगों की कतार में मैनेजमेंट गुरु दीपक चौपडा, अभिनेता राहुल बोस, अनुपम खेर, शेखर कपूर, राहुल खन्‍ना, सांसाद मिलिंद देवडा और क्रिकेटर पार्थिव पटेल भी शामिल हैं।

शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2008

भास्‍कर की वेब पर रतलामीजी और इरफान का जिक्र


दैनिक भास्‍कर की वेबसाइट में ‘गणतंत्र के झंडे में लपेटकर, प्रिय भारत की माटी में” शीर्षक से एक लेख है। इसमें हिंदी ब्‍लॉग जगत का उल्‍लेख है। इसमें श्री रवि रतलामीजी इरफान और ओमप्रकाश तिवारी का जिक्र है। यह आलेख विधान निगम ने लिखा है, वो मप्र में कही रिपोर्टर हैं। पर यहे आलेख प्रिंट में किस एडिशन में छपा इसकी जानकारी नहीं। क्‍यूंकि जयपुर में यह दिखाई नहीं दिया। वैसे वाडनेकर साहब हमारी कुछ मदद कर सकते हैं। यदि किसी को प्रिंट एडिशन की जानकारी हो तो तुरंत सूचित करे।
आपकी सुविधा के लिए यह पूरा लेख हूबहू दिया जा रहा है।
गणतंत्र के झंडे में लपेटकर, प्रिय भारत की माटी में
विधान निगम
Thursday, February 14, 2008 05:49 [IST]
ब्लॉग यायावरी. हिंदी ब्लॉग जगत हिंदी साहित्य और आलोचना का समानांतर प्लेटफॉर्म बनने की ओर तेजी से कदम बढ़ा रहा है। उससे यह धारणा गलत साबित होती जा रही है कि हिंदी में नई पीढ़ी के अच्छे कवियों और लेखकों का अभाव है। इन्हें पढ़कर कोई भी समझदार व्यक्ति यह सोचने पर मजबूर हो सकता है कि हिंदी साहित्य प्रकाशन लेखन माफिया की गिरफ्त में तो नहीं..? अगर ऐसा न होता तो साहित्य के नाम पर हिंदी में सिर्फ जमे हुए बूढ़े (लेकिन अच्छे भी) और घटिया नवांकुर लेखकों की किताबें नजर न आतीं।
इस हफ्ते कई ब्लॉग्स पर अच्छी रचनाएं देखने को मिलीं। रवि रतलामी ने अमेरिका में रहने वाली रचना श्रीवास्तव की कविता तेरे बिना पोस्ट की है। आप भी पढ़िए ..
एक शाम जब हम बैठे थे साथ थाम के मेरा झुर्रियों भरा हाथ तुमने कहा था.. ऐ जी हो गए कितने सालचलते-चलते यूं ही साथ35 साल है न मैंने होले से कहा तुम मुस्कुरा दींफिर चहक के बोलीं कौन-सा दिन था सबसे प्याराजो बीता मेरे साथ, मैं चुप रहा कुछ तो बोलो तुमने तुनक के कहाअरे! मेरी पगली तेरे इस अजब सवाल का कोई जवाब दे कैसे ?दुआओं भरी पोटली हो जब सामने कोई एक दुआ उनमें से चुने कैसे..?तन्हा हूं, तन्हाई से डरता हूंउदास हुआ नहींजब बच्चे घर से उस वक्त टूटा नहींजब नाता तोड़ा हमसे बिखरा नहीं तब भी जब पोतों को दूर रहने को कहा गया हमसे सब कुछ सहा पर अब तेरे जाने के बाद बिखर गया हूंअकेला तेरी यादों के साथ रह गया हूं।इरफान के ब्लॉग पर भी बहुत अच्छी कविता मिलेगी.. ‘मुलाकात’फिर तुमने अपने ठंडे पोरों से छुआ बुधवार था और आसमान से नमी की चादर हमें ढंकने आई...उस नीम ठंड में हम सतह की हवा को हलका बनाते रहे।
ओमप्रकाश तिवारी ने अपने ‘मीडिया नारद’ ब्लॉग पर एक विचारोत्तेजक लेख पोस्ट किया है। इसमें यह सवाल उठाया गया है कि फिल्मी लेखक और गीतकार को साहित्यकार का दर्जा क्यों नहीं मिलता? उन्होंने बहुत तार्किक ढंग से अपनी स्थापना दी है कि फिल्मी लेखक और गीतकार बाजार नियंत्रित हैं लेकिन साहित्यकार नहीं। जैसे सेल्समैन और सृजनकर्ता की तुलना नहीं की जा सकती वैसे ही इनकी भी बराबरी नहीं की जा सकती। साहित्यकार मूल्यों का सृजन करता है जबकि फिल्मी लेखक सृजित मूल्यों को बेचता है।
और अंत में ..
एक कविता ढाई आखर पर नसीरुद्दीन ने तसलीमा नसरीन की दो ताजा कविताएं पोस्ट की हैं ये कविताएं तसलीमा ने कैद ए तन्हाई में बांग्ला में लिखी थी जिनको हिंदी में ढाला है पत्रकार कृपाशंकर ने। ये कविताएं बताती हैं कि हम किस दौर में रह रहे हैं..
‘जिस घर में रहने को मुझे बाध्य किया जा रहा है’इन दिनों मैं ऐसे एक कमरे में रहती हूं,जिसमें एक बंद खिड़की है,जिसे खोलना चाहूं, तो मैं खोल नहीं सकती खिड़की मोटे पर्दे ढंकी हुई है. चाहूं भी तो मेैं उसे खिसका नहीं सकतीइन दिनों मैं ऐसे एक कमरे में रहती हूं चाहूं भी तो खोल नहीं सकती, उस घर के दरवाजे..वे भी शायद होंगी उस दिन गणतंत्र के झंडे में लपेटकर, प्रिय भारत की माटी में,कोई मुझे दफन कर देगा। शायद कोई सरकारी मुलाजिम खैर, वहां मुझे भी नसीब होगी, एक अल्प कोठरी। उस कोठरी में लांघने के लिए, कोई दहलीज नहीं होगीवहां भी मिलेगी मुझे एक अदद कोठरी,लेकिन, जहां मुझे सांस लेने में कोई तकलीफ नहीं होगी।

बुधवार, 13 फ़रवरी 2008

बेटियों के ब्‍लॉग की चर्चा आगरा के डीएलए में


आगरा से प्रकाशित होने वाले डीएलए के नेशनल पेज (पेज 17) पर 11 फरवरी को बेटियों के लिए ब्‍लॉग की चर्चा हुई है। बेटियों के ब्‍लॉग की पूरी टीम को ब्‍लॉग खबरिया की ओर से बधाई।

अब बेटियों के लिए बना ब्‍लॉग नई दिल्‍ली। इंटरनेट पर हिंदी की उपस्थिति लगातार बढती जा रही है। ब्‍लॉग के जरिए तो इसमें और इजाफा हो रहा है। ब्‍लॉग जगत में इन दिनों एक नए तरह के ब्‍लॉग का उदय हुआ है। खास बात यह कि इस विशेष ब्‍लॉग पर केवल और केवल बेटियों की ही चर्चा हो रही है।
बेटियों का ब्‍लाग एक ऐसा ही ब्‍लॉग है, जहां ब्‍लॉगर माता पिता अपनी बेटियों के बारे में बातें लिखते हैं। यह एक सामुदायिक ब्‍लॉग है। एक ही छतरी के नीचे कई ब्‍लॉगर माता पिता इकटठा होकर अपनी बेटियों के बारे में तरह तरह की बातें लिखते हैं। फिलहाल इस ब्‍लॉग के ग्‍यारह सदस्‍य है। सभी लगातार ही अपनी घर के क्‍यारी की बिटिया के बारे में लिखते रहते हैं। इस ब्‍लॉग की चर्चा इन दिनों हर जगह हो रही है। काफी कम समय में यह ब्‍लॉग लोकप्रिय हो गया है। इस ब्‍लॉग को शुरू करने वाले अविनाश दास ने अपने पहले पोस्‍ट में लिखा, ये ब्‍लॉग बेटियों के लिए है।

मंगलवार, 12 फ़रवरी 2008

नई दुनिया जबलपुर में ब्‍लॉगर्स की चर्चा


नई दुनिया जबलपुर ने 12 फरवरी को जबलपुर सिटी में ब्‍लॉग जगत पर शहर में ब्‍लॉग शीर्षक से एक लेख लिखा है। गिरीश बिल्लोरे 'मुकुल' ने भडास पर डाला है। वहीं से यह आपके लिए उपलब्‍ध कराया जा रहा है।
अगर किसी के पास पूरा टैक्‍टस उपलब्‍ध हो तो कृपया jaipurblogmaster@gmail.com पर मेल करे जिससे सभी लोग अपना ज्ञान बढा सकें।

सोमवार, 11 फ़रवरी 2008

वडनेरकरजी और ब्‍लॉग जगत को बधाई


दिल्‍ली से प्रकाशित इंडिया टुडे समूह के अंग्रेजी अखबार
मेल टुडे में 9 फरवरी को
ब्‍लॉगजत पर एक लेख छपा है। इसमें हिंदी ब्‍लॉगिंग से लेकर तमिल ब्‍लॉगिंग तक का जिक्र है। पर खबर में अपने शब्‍दों के सफर वाले अजीत वडनेरकरजी का खासा जिक्र है। इसमें बताया गया है कि वाडनेरकरजी को रोज करीब 80 हिट मिलते हैं। इसके साथ साथ कानपुर के अनूप शुक्‍लजी का भी हवाला दिया गया है। पूरी खबर ज्‍यों की त्‍यों दी जा रही है।
Vernacular bloggers carve a niche on Net
By Abhishek Shukla in New Delhi

According
to a
survey,
44 per cent
of existing
Internet
users
prefer
Hindi to
English,
while
25 per cent
prefer
South
Indian
languages.

WHAT started as an experiment for Ajit Wadnerker six months ago has now become his passion. Today, he is one of thousands of bloggers stuffing the web with their writings in Indian languages.
Wadnerker’s blog on Hindi etymology is an interesting read, receiving about 80 hits
daily. Since mid-2007, his blog has received over 14,000 hits and has been declared one of the best in the Hindi language.
Wadnerker, a journalist with a leading Hindi newspaper in Bhopal, says his passion to get into the roots of Hindi words led him into blogging. “You cannot be personal while writing for a newspaper so I satiate my creative urges on my blog. I was
fascinated to know the origin and derivation of Hindi words and expressions. Soon a collection of resources was ready. I started to take a word and write about it on my blog. I also write about contemporary issues,” he adds.
Blogging in regional or vernacular languages started in early 2000. Since then, the blogger strength has been increasing constantly. Tamil bloggers led the way for vernacular blogging in India. By the time Hindi blogging took off, the
Tamils had already created about 400 blogs.
According to estimates, there are more than 1,000 Hindi bloggers,who are regularly updating their blog spaces like chitthajagat,blogwani and hindiblogs. Regional language blogs such as tamilblogs.-blogspot.com, desipundit and mydunia are some of the leading sites.
The country has an estimated four crore Internet users and the number is growing. A large number of these users are from small towns. A report by market research firm Juxtconsult reveals that 44 per cent of the existing Internet users preferred Hindi to English, while 25 per cent went for south Indian languages.
“These bloggers are young and ready to post their personal views on the web. They are using blogs to publish their poems, literature, politics, films and trivial
things like photographs of actresses or SMS jokes,” said Debashish, a Pune-based software professional who is hooked to blogging since 2002.
Besides personal views, one can find literature marvels like Rag Darbari posted by Anup Shukla from Kanpur and stories of Premchand posted by USbased
Raman Kaul.
A software package developed by an Indore firm, Webdunia — an offshoot of the Hindi
newspaper Nai Dunia — triggered language blogging in India. This software allowed
users to use the standard keyboard to chat or blog in any Indian language.
“We were the first Indians to develop Unicode-based software that did away the need to download the fonts for different scripts. We supplied this software to Microsoft MSN, Rediff and Sify,” said Pankaj Jain, president of webdunia.com.
In 2007, Google began to provide transliteration features making it possible for the bloggers to invade the blogosphere.
The Google page comes up with an inbuilt Hindi dictionary that helps the users edit the published material.
abhishek.shukla@mailtoday.in

शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2008

महिला चिटठाकारों के लिए जयपुर से शुभ सूचना


जयपुर में सात फरवरी को वूमन भास्‍कर दैनिक भास्‍कर का एक पेज) में महिला ब्‍लागर्स का जिक्र हुआ है। इसमें महिलाओं के पहले कम्‍यूनिटी ब्‍लॉग की भी चर्चा की गई है। कहा गया है कि फरवरी 2008 के आते-आते चोखेर बाली नाम से महिलाओं का एक कम्‍युनिटी ब्‍लॉग शुरू हो गया। इसमें औरतों की समाज में अपनी एक खास जगह की पैरवी की गई है। इसकी शुरुआत में ही कहा गया है- “इससे पहले कि वे आ के कहें, हमसे हमारी ही बात हमारे शब्‍दों में और बन जाए मसीहा हमारे। हम आवाज अपनी बुलंद कर लें, खुद कह दें खुद की बात, ये जुर्रत कर लें।“ यह लेख नीलिमा सुखीजा अरोडा ने लिखा है।
आपकी सुविधा के लिए लेख हूबहू प्रकाशित किया जा रहा है।
कह लूं जरा दर्द आधी धरती का...
दो सालों में हिन्दी ब्‍लॉगर महिलाओं की संख्‍या में बीस गुना इजाफा
नीलिमा सुखीजा अरोड़ा
जयपुर में डिग्री कॉलेज की लेक्‍चरर अनिता कुमार दो साल पहले तक कम्‍प्‍यूटर को एक डब्‍बे से ज्यादा कुछ नहीं समझती थीं। लेकिन सालभर पहले एक दिन जब वे यूं ही नेट पर उतरीं तो उन्हें ब्‍लॉगिंग का शौक लग गया जो अब उनका डेली रुटीन हो गया है। आलोक पुराणिक के ब्‍लॉग से प्रभावित होकर अनिता ने भी ब्‍लॉग शुरू कर दिया। नेट पर लाने में बेटे ने बड़ी भूमिका निभाई। आज वे अच्छी महिला ब्‍लॉगर्स में मानी जाती हैं। कुछ हम कहें ब्‍लॉग को बड़ी संख्‍या में हिट्स मिलते हैं।
आज से दस साल पहले जब ब्‍लॉग अस्तित्व में आया तब कोई सोच भी नहीं सकता था कि शौकिया शुरू की गई पर्सनल
वेबसाइट आज करोड़ों की संब्‍या पार कर जाएगी। आज हिन्दी में 2000 से भी ज्यादा चिट्ठेकार हैं। हालांकि महिलाओं की संख्‍या पुरुषों की तुलना में काफी कम है पर फिर भी उनकी उपस्थिति विशेष है। कारण जितनी भी महिलाएं ब्‍लॉगिंग कर रही हैं, वे काफी अच्छा लेखन कर रही हैं।
2006 में जहां हिन्दी ब्‍लॉगिंग में आधा दर्जन ब्‍लॉगर महिलाएं भी नहीं थीं वो 2008 के पहले महीने में ही 50 को पार कर चुकी हैं। पाठकों की संख्‍या तो इससे कई गुना ज्यादा है। वहीं अंग्रेजी ब्‍लॉगिंग में भारतीय महिलाओं की संख्‍या तो कई हजारों में है।
महिला ब्‍लॉगर्स अपने चिट्ठे (ब्‍लॉग) में हर विषय पर लिख रही हैं। विचार, कहानियां, कविताएं, रिपोर्ताज, चर्चाएं, संस्मरण, यात्रा विवरण आदि भी खूब खुलकर लिखे जा रहे हैं। ये सभी अलग- अलग क्षेत्रों से जुड़ी हैं। काफी समय से सुगबुगाहट थी कि महिलाओं का अपना कम्‍युनिटी ब्‍लॉग क्‍यों नहीं है जहां वे अपने मन की बात कह सकें। फरवरी 2008 के आते-आते इसकी भी नींव पड़ गई।
चोखेर बाली नाम से महिलाओं का एक कम्‍युनिटी ब्‍लॉग शुरू हो गया। जिसमें औरतों की समाज में अपनी एक खास जगह की पैरवी की गई है। इसकी शुरुआत में ही कहा गया है- इससे पहले कि वे आ के कहें, हमसे हमारी ही बात हमारे शब्‍दों में और बन जाए मसीहा हमारे। हम आवाज अपनी बुलंद कर लें, खुद कह दें खुद की बात, ये जुर्रत कर लें। ब्‍लॉग में नारी मन की बातों, गांठों और भावों को शब्‍दों का रूप देती हैं। यहां पर लिखी गई पोस्ट भी वैसी ही हैं-कह लूं जरा दर्द आधी धरती
का या कुछ नहीं समझती ये नादान लड़की। लगातार ब्‍लॉग लिखने वाली महिलाओं में कंचन सिंह चौहान, सुनीता शानू, रंजना भाटिया, प्रत्यक्षा, बेजी, नीलिमा, मीनाक्षी, पारूल जैसे कई नाम हैं जिनके ब्‍लॉग बड़ी संख्‍या में पढ़े जा रहे हैं।

गुरुवार, 7 फ़रवरी 2008

इकोनोमिक्स टाइम्स में महिला ब्‍लागर्स की चर्चा


सात फरवरी के इकोनोमिक्स टाइम्स, अहमदाबाद में महिला चिट्ठाकारों पर एक लेख छपा है। इसमें विशेष रूप से स्वर्ण कलम विजेता रंजना भाटिया एवं सुनिता चौटिया की चर्चा है। इसके साथ ही छवि मीडिया सर्विसेज, तरकश और हिन्द-युग्म का भी जिक्र है। किसी ब्‍लॉग पर चर्चा थी कि मितुल ठक्कर साथ साथ इसको लिखने वाली पूर्वा भाटिया, रंजनाजी की पुत्री हैं। ब्‍लॉग खबरिया की ओर से सभी को बधाई।
Vernacular blogs hook Indian women
Mitul Thakkar & Purva Bhatia AHMEDABAD
INDIAN homemakers’ obsession is not limited to only Hindi sops. They are wielding the mouse as efficiently as a TV remote. Thanks to the easy access to the services and toolbars in vernacular, Indian women have broken all barriers to the cyber world.
They are not earning yet, but are happy getting their views posted on the web. Looking at the constantly increasing numbers, it is also believed that the future of regional blogging is bright and will have its impact on publishing in the long run.
For instance, Sunita Chotiya Shanoo, after her 16-year long stint in tea exports, realised that internet is well beyond just tracking cargo. “I started by reading a lot of Hindi blogs. It took me some time but I learnt how to post and translate.” she says. And now she is working on authoring a book of poems for school children.
According to netizens, there were hardly any women bloggers but the number is increasing each day. And now there are forums to promote recognise and encouraging women bloggers. Delhi-based Chithakar (blogger in English) Ranjana Bhatia, recipient of an award for being the best blogger by Gujarat-based Chhavi Media Services (CMS) had inclination to write. But, it was only for own satisfaction. In the last couple of years, she has learnt the tricks of the clicks to reach the larger audience through her blog.
“Initially, I was unaware of the possibility of reaching out to so many people. But now the recent recognition has encouraged me to write more about the issues that touch me as well as can influence the society in positive manner,” Mr Bhatia says. She contributes to 5 blogs regularly and is now confident to pen a book.
CMS is engaged into promoting Indian languages launched an infotainment portal www.tarakash.com in 2006. “Initially, blogging in vernacular was not too easy so we started with a multi-lingual platform. However, the concept is now picking up well and today we have over 100 bloggers writing in different Indian languages,” CMS MD Pankaj Bengani says.
The bloggers weren’t differentiated through the lens of gender last year since there were negligible female bloggers in the year the poll was first held. “In the year 2006, there were just half a dozen women bloggers. This time there were over 50 women bloggers associated with us. A total of 20 popular blogs – 10 in each category – were selected out of over 130 blogs,” says Bengani.
www.hindyugm.com is another online Hindi platform on the lines of popular English portal www.poetry.com and receives regular contribution from 75 authors. It receives about 1000 hits a day and has contributors from India as well as Nepal, UAE, Singapore, USA, and Australia. In Jan 2007, Hindyugm started competition Hind Yugm Unikavi and Unipathak Pratiyogita to promote Hindi Blogging. “Hindyugm started with only six participants and now we have 50 poets as contestants. Similarly, the visitors too have increased from mere 85 to more than 1000 a day now,” Hindyugm promoter Shailesh Bharatwasi says.
mitul.thakkar@timesgroup.com

सोमवार, 28 जनवरी 2008

नवभारत टाइम्‍स का फोकस: ब्लॉग का बोलबाला

26 जनवरी को नवभारत टाइम्स दिल्‍ली में फोकस पेज पर ब्‍लॉग की चर्चा हुई। समाचार पत्र का पूरा पेज पीडीएफ फार्मेट में उपलब्‍ध नहीं है। इसलिए मेरे जैसे दिल्‍ली से बाहर रहने वाले ब्‍लॉगिये इन लेखों से चूक गए। अब इन्‍हें यूनिकोड में कनवर्ट किया गया है। आप सभी के लिए यह हूबहू प्रकाशित किया जा रहा है।

इन दिनों इंटरनेट की दुनिया में ब्लॉग यानी चिट्ठा सबसे ज्यादा पढ़ी, लिखी और देखी जाने वाली चीज बन गया है। हर किसी का एक ब्लॉग है या हर कोई एक ब्लॉग बनाना चाहता है। साइबर स्पेस में यह ऐसा हंगामा है, जिसकी तुलना आप इंडियन डेमोक्रेसी से कर सकते हैं। तो हमने सोचा कि क्यों नहीं रिपब्लिक डे के आसपास इस चौपाल की खबर ली जाए, जिसे नए मीडिया का सबसे पॉपुलर कोना माना जाने लगा है।

मजे की बात यह कि इस हंगामे में हम भारतीय भी पीछे नहीं हैं और बिना वक्त गंवाए वह सब कुछ कह देना चाहते हैं, जो हमारे बेहद उपजाऊ दिमागों में भरा है। हिंदी को औजार बनाकर इंटरनेट की आभासी दुनिया में हलचल पैदा कर रहे लोगों के जरिए ही हम यहां ब्लॉगिंग की पड़ताल कर रहे हैं:


ये तेरा ब्लॉग, ये मेरा ब्लॉग
मंगलेश डबराल, वरिष्ठ कवि/पत्रकार
यह अच्छी बात है कि हिंदी में ब्लॉग की दुनिया बढ़ रही है। शौकिया ढंग से चलाए जा रहे ज्यादातर ब्लॉग कविताओं, कहानियों, अनुवादों, टिप्पणियों, मीडिया विमर्श, वाद-विवाद प्रतिवाद, गीत-संगीत, माया संस्मरण स्मृति, मोहल्लेदारी, भाईचारे की भावना और जन्मदिन की शुभकामनाओं से भरे हुए हैं। उनमें एक आपसी लगाव इसलिए भी दिखता है कि उनके आयोजक स्वाभाविक रूप से मिलते जुलते हैं, ब्लॉगों के बारे में पत्र पत्रिकाओं में अनुकूल किस्म की टिप्पणियां भी प्रकाशित होती हैं।

ऐसे में लगता है कि बाजारवादी और वर्चस्ववादी मुख्य धारा के मीडिया के बरक्स यह वैकल्पिक माध्यम आने वाले वर्षों में हाशियों की अस्मिता का एक प्रभावशाली औजार बनेगा, हमारे जैसे देश में जहां मुख्य मीडिया वास्तविक सूचनाओं, तथ्यों और सत्यों को प्रकट करने से ज्यादा छिपाने का काम करता हो, ऐसे वैकल्पिक माध्यम और जरूरी हैं। लेकिन ब्लॉग की अवधारणा और उसके उद्देश्यों के समर्थक इन पंक्तियों के लेखक का एक दुख यह है कि उसे 6 दिसंबर 2007 को बाबरी मस्जिद ध्वंस के पंद्रहवें वर्ष पर ब्लॉगों के हलचल-भरे संसार में सिर्फ 'कबाड़खाना' नामक एक ब्लॉग पर कैफी आजमी की कविता 'दूसरा वनवास' के अलावा कुछ नहीं मिला।

इससे कुछ समय पहले अमेरिकी इंडियन मूल के कवि एमानुएल ओर्तीज की एक अद्भुत कविता 'इस कविता को शुरू करने से पहले दो मिनट का मौन' अमेरिकी ब्लॉगों पर बहुत चर्चा में रहने के बाद 'महल' में प्रकाशित हुई थी, जिसका हिंदी अनुवाद कवि असद जैदी ने किया था, उम्मीद थी कि यह कविता जरूर किसी ब्लॉग पर चिपकी हुई दिखेगी क्योंकि यह 11 सितंबर को अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर और पेंटागन पर हुए हमलों में मारे गए मासूम लोगों के बहाने तीसरी दुनिया में अमेरिका द्वारा किए गए अन्यायपूर्ण हमलों का शिकार हुई मानव जाति के प्रति एक महान शोकांजलि की तरह है और एक हद तक आलोकधन्वा की 'जनता का आदमी' और 'गोली दागो पोस्टर' की याद दिलाती है। लेकिन यह कविता हिंदी के ब्लॉगों से बाहर ही रही, हालांकि अमेरिका और यूरोप में वह सैकड़ों ब्लॉगों पर मौजूद है और 2002 से अमेरिकी सत्ता के विरोधियों-आलोचकों के बीच चर्चित हो रही है।

दरअसल, पहले इराक युद्ध के बाद कम से कम अमेरिका में ब्लॉग की परिभाषा और उद्देश्यों में बड़ा बदलाव आया है और फिर दूसरे इराक युद्ध के दौरान अमेरिका का विरोध करने वालों ने जो ब्लॉग शुरू किए उनके कारण इसे 'ब्लॉग युद्ध' भी कहा गया। पश्चिम के ब्लॉगों ने सत्ताधारियों, बहुराष्ट्रीय निगमों और खासकर अमेरिकी व्यवस्था द्वारा मुख्यधारा के मीडिया में प्रचारित किए गए उन झूठों का पर्दाफाश भी किया है। अमेरिकी ब्लॉग आज एक सांस्कृतिक शक्ति बन चुके हैं। हिंदी ब्लॉगों से फिलहाल ऐसी उम्मीद करना उचित नहीं होगा, लेकिन यह तो संभव है कि वे अपने को मुख्य मीडिया के निरंतर और स्थायी विकल्प के रूप में ढालें और सांस्कृतिक स्तर पर विस्मरण के विरुद्ध काम करें। वर्तमान ब्लॉगों में यह भी नजर नहीं आता, उनमें ज्यादातर हल्का-फुल्का, गपशप का माहौल है या फिर गंभीरता के नाम पर छोटी-छोटी पॉलिमिकल बहसें हैं, जिनमें भड़ास या कुंठाएं निकाली जाती हैं या कोई सनसनीदार साहित्यिक चीज पेश की जाती है।

पिछले दिनों एक ब्लॉग पर दो हिंदी कवियों के बारे में आरोपों-प्रत्यारोपों का ऐसा घमासान रहा कि कई ब्लॉग पाठकों को कहना पड़ा कि भई, बहुत हो गया अब बस कीजिए। इसी तरह एक स्फुट किस्म के समालोचक ने अचानक एक इंटरव्यू में कुछ लेखकों पर अप्रत्याशित किस्म के फतवे जड़ दिए, तो एक लेखक ने त्रिलोचन शास्त्री के परिवार के प्रति मनमानी बातें कह डालीं, जिन्हें विरोध के कारण बाद में ब्लॉग से हटाना पड़ा। कुछ लेखकों के ब्लॉग शायद अनजाने में ही आत्म विज्ञापन का साधन बने हुए दिखते हैं, जिनमें उनकी रचनाओं के साथ उनकी आगामी पुस्तकों के चित्र भी चिपके होते हैं, तो कुछ ब्लॉगों में इस कदर भावुकता है जैसे बिछुड़े हुए भाइयों के लिए 'जहां कहीं हो लौट आओ' के संदेश दिए जा रहे हों। एक ब्लॉग पर मास्टर मदन के एक गीत को इस तरह प्रस्तुत किया गया जैसे वह अनुपलब्ध हो और ब्लॉग ने उसे खोज निकाला हो, तो एक चिट्ठाकार ने हिंदी के एक प्रमुख कवि के व्यक्तित्व पर निरर्थक ही अपनी राय दे डाली। यह सब दुरुस्त है, लेकिन जो असल चीज है, जो किसी ब्लॉग का व्यक्तित्व निर्धारित करती है, वह वैकल्पिक कथ्य कहां है?
हिंदी ब्लॉग तमाम नेकनीयती के बावजूद अभी तक अराजनैतिक, व्यक्तिगत, रूमानी, भावुक और अगंभीर हैं, अगर मोबाइल फोनों के एसएमएस (शॉर्ट मैसेजिंग सर्विस) की तर्ज पर उन्हें एलएमएस (लांग मैसेजिंग सर्विस) कहा जाए तो क्या अतिशयोक्ति होगी, खासकर जब यह असंतोष ब्लॉग का एक गहरा पक्षधर व्यक्त कर रहा हो? क्या ब्लॉगों से गंभीर, वैचारिक, बौद्घिक होने की मांग करना अनुचित होगा, क्या यह कहना गलत होगा कि उन्हें उर्दू के सतही शायर चिरकीं की मलमूत्रवादी गजलों, लेखकों की निजी कुंठाओं और पारिवारिक तस्वीरों की बजाय एमानुएल ओर्तीज की कविताएं, एजाज अहमद की तकरीरें और तहलका द्वारा ली गई गुजरात के कातिलों की तस्वीरें जारी करनी चाहिए? संक्षेप में, ब्लॉगों को मुख्य मीडिया से ज्यादा जिम्मेदार होना होगा ताकि वे 'ब्लॉग-ब्लॉग' खेलने तक सीमित न रह जाएं।

1: हम सबका मोहल्ला
अविनाश, मॉडरेटर, मोहल्ला

साल भर पहले मोहल्ला बस यूं ही शुरू किया था। हम सबके पास अपनी बात कहने के लिए अखबार और टीवी का मंच था, लेकिन वह सब औपचारिक था। यहां बहुत कुछ कहने के बाद भी बचे हुए अनकहे के लिए कोई कागज चाहिए था और हिंदी की पत्रिकाएं ये कमी पूरी नहीं कर पा रही थीं।

उस वक्त नारद एग्रीगेटर था, जो हिंदी ब्लॉग के फ्लैग दिखलाता था। लेकिन उसके मॉडरेटर्स ज्यादातर कट्टर हिंदू सोच के लोग थे और सांप्रदायिक सौहार्द की कहानियों पर उनकी भवें तन जाती थीं। उनके खिलाफ लंबी लड़ाई के दौरान मोहल्ला को बड़ा जनसमर्थन मिला। फिर नया ज्ञानोदय नाम के एक साहित्यिक विवाद ने इसे और लोकप्रिय बनाया। कई बार इस ब्लॉग को बैन करने की भी हवा चली और कई बार मुकदमे की तैयारियां भी हुई। बहरहाल, अब कहानी बहुत आगे बढ़ चुकी है।

बीते नवंबर के आसपास हमने मोहल्ला को कम्युनिटी ब्लॉग में बदलने की ठानी। एक बन चुकी इमारत को समाज को सौंपने की पुरानी लोकतांत्रिक रवायत कायम रखते हुए मोहल्ला कम्युनिटी ब्लॉग हो गया और उदय प्रकाश और कुर्बान अली जैसे हिंदी के बड़े नाम इसके मेंबर बने। फिलहाल, मोहल्ला के करीब 50 मेंबर हैं और हमारी ख्वाहिश हिंदी में लोकतांत्रिक और आधुनिक मूल्यों में भरोसा करने वाले हजारों लोगों को एक मंच पर लाने की है।

2: रेडियो की यादें
यूनुस खान, मॉडरेटर, रेडियोनामा

रेडियोनामा के बारे में बात करनी हो तो पहले रेडियोवाणी का जिक्र करना होगा। दरअसल, अप्रैल 2007 की एक शाम म़ुझे रेडियोवाणी शुरू करने का आइडिया आया। म्यूजिक एप्रीसियेशन का जुनून बहुत कच्ची उम्र से रहा है, गाने सुनना और उनका विश्लेषण करना। रेडियोवाणी का आइडिया इसी जुनून की देन है। रेडियोवाणी के जरिए कई रुचियों वाले कई लोग मिले। ऐसे लोग जिनका रेडियो से कभी नाता रहा था, एक श्रोता के रूप में और कुछ ऐसे जिनका रेडियो से एक प्रेजेन्टर के रूप में नाता था या है। फिर एक दिन हम लोगों को ख्याल आया कि क्यों न एक ऐसा ब्लॉग शुरू किया जाए, जिसमें रेडियो की बातें हों। रेडियो की यादें। रेडियो से जुड़े जज्बात और ग्यारह सितंबर 2007 को रेडियोनामा का आगाज हुआ।

रेडियोनामा की टैग लाइन है, बातें रेडियो की, यादें आपकी। यानी रेडियो की यादों और बातों का ब्लॉग। ये रेडियो की स्मृतियों और विमर्श का संगम है। हालांकि, अभी स्मृतियों वाला पक्ष प्रबल है, पर आगे चलकर हम रेडियोनामा में कुछ नई बातें शामिल करना चाहते हैं। जैसे निजी एफएम चैनलों पर विमर्श, उनके आने से किस तरह सामाजिक परिदृश्य बदला है। एक माध्यम के रूप में रेडियो की जो ताकत है उस पर गंभीर विमर्श की जरूरत है। रेडियोनामा के समुदाय में तकरीबन बीस लोग शामिल हैं और लगातार इनकी तादाद में इजाफा हो रहा है।
3: कह दो जो दिल में है
यशवंत, मॉडरेटर,भड़ास

जैसा कि ब्लॉग के नाम से ही जाहिर है, यह ब्लॉग मैंने भड़ास निकालने के लिए ही शुरू किया था। काफी वक्त से देख रहा था कि ब्लॉग की दुनिया में बहुत हलचल हो रही है। मैंने सोचा कि क्यों ना एक ब्लॉग बनाया जाए। नाम भी कुछ हटकर होना चाहिए था। जब इसकी शुरुआत की तब यह बहुत सीमित था। अब इसके 180 सदस्य हो गए हैं। हमने भड़ास का टारगेट ग्रुप रखा हिन्दी मीडिया के लोग। जो बातें वह ऑफिस या घर पर नहीं कह सकते, वह ब्लॉग में कह सकते हैं और अपने मन की भड़ास निकाल सकते हैं।

जैसा कि ब्लॉग की टैग लाइन ही है कि 'अगर कोई बात गले में अटक गई हो तो उगल दीजिए, मन हल्का हो जाएगा...' हिन्दी मीडिया में कई ऐसी चीजें हो रही हैं, जिसकी वजह से इससे डायरेक्ट-इनडायरेक्ट जुड़े लोग कुंठाग्रस्त हो रहे हैं। वही कुंठा निकालने का माध्यम है भड़ास। ब्लॉग के जरिए हम एक दूसरे की दिक्कत के हमसफर बनते हैं और उसका समाधान निकालने की कोशिश भी करते हैं। हौसला भी बंधाते हैं कि एक-दूसरे की लड़ाई में हम साथ हैं। इस ब्लॉग को हिन्दी मीडिया के सीनियर लोग भी खूब पढ़ते हैं। जिससे हमारा मकसद भी पूरा हो जाता है। ब्लॉग के जरिए हम अपनी बात उन तक पहुंचाकर उन्हें आइना दिखाते हैं। शायद पढ़कर वह कुछ सुधार करें।


4: काम का है रिजेक्ट माल

दिलीप मंडल, मॉडरेटर

ब्लॉग की दुनिया से परिचय तो पुराना था लेकिन इंग्लिश ब्लॉग के जरिए। हिन्दी ब्लॉगिंग को दूर से ही देख रहा था। कुछ दिनों तक दूसरे ब्लॉग्स में लिखता रहा उसके बाद ख्याल आया कि क्यों ना खुद का ही मंच बना लिया जाए। बस सिलसिला चल पड़ा। जब रिजेक्ट माल की शुरूआत की थी तब दिमाग में यह ख्याल था कि जिन लेखों को मेन स्ट्रीम में जगह नहीं मिलेगी हम उन्हें एक मंच मुहैया कराएंगे। जो रचनाएं नकार दी गई हों उनकी गूंज दुनिया तक पहुंचाएंगे। लेकिन जो हमने सोचा था अभी वह कर नहीं पा रहे हैं। भविष्य में ऐसा करने की योजना है।

मुझे लगता है कि ब्लॉग एक सशक्त माध्यम है अपनी बात कहने का। इसमें हम पाठकों से सीधे संवाद कर सकते हैं। हिन्दी ब्लॉग की अभी शुरुआत हुई है। अभी जिस तरह की ब्लॉगिंग हो रही है उसे देखकर लगता है कि अभी असली नायक और नायिकाओं का आना बाकी है। खेल तो अभी शुरू हुआ है। वैसे हिन्दी ब्लॉगिंग का भविष्य इस पर टिका है कि हिन्दी का भविष्य कैसा है। खासकर कंप्यूटर के इस्तेमाल में अगर हिन्दी की ताकत बढ़ती है तो इसका फायदा हिन्दी ब्लॉगिंग को भी मिलेगा ही।

5: अनूठी रचनाओं का 'कबाड़'
अशोक पांडे, मॉडरेटर, कबाड़खाना

कबाड़ेखाने की विविधत शुरुआत सितम्बर, 2007 में हुई थी और मुझे तब कतई पता नहीं था कि इसके साथ मुझे करना क्या है। बस इतना ही तय था कि मेरे पास बहुत सारा ऐसा था, जिसे मैं बाकी लोगों के साथ साझा करना चाहता था। शुरू करने के बहुत जल्द ही इसे एक सामुदायिक मंच बनाने का निर्णय लिया और एक एक कर के मैंने कुछ परिचितों को सदस्यता लेने का निमंत्रण दिया।

यह अच्छा फैसला साबित हुआ और आज हमारे ब्लॉग में 25 से ज्यादा 'कबाड़ी' हैं। अपनी मूल प्रकृति में कबाड़खाना किसी पिटारे जैसा है, जिसके भीतर जीवन की विविधता से सराबोर कई तरह का कबाड़ है और मैं जानता हूं अभी यह बिल्कुल शुरूआत के दौर से गुजर रहा है। एक साल बाद इसकी शक्ल कैसी होगी मैं नहीं कह सकता। शुरू में केवल परिचितों को इस बारे में पता था और उन्होंने इस पसंद किया और अमूल्य सुझाव दिए। अब जिन जिन जानी अनजानी जगहों से लोगों की टिप्पणियां कबाड़खाने में आती हैं, मुझे इस खुशफहमी को बनाए रखने में जरा भी हिचक नहीं है कि शायद लोगों को इसका कूड़ा अपनेपन से भरपूर लगता है। हमारी कोशिश रहेगी कि इसकी गुणवत्ता लगातार सुधरती रहे।

बुधवार, 23 जनवरी 2008

भडास की चर्चा पर यशवंतजी का नाम गायब


19 जनवरी शनिवार को दैनिक भास्‍कर के राष्‍टरीय संस्‍करण में पेज 9 पर ब्‍लॉग उवाच कॉलम में भडास की चर्चा हुई। इस चर्चा में आधा लेख तो ऐसा है, जैसे खेती बाडी का ब्‍लॉग हो। वो तो भला हो कि कहानी खत्‍म होते होते इसमें मीडिया का जिक्र हो गया। पर अपन को एकाकी व्‍यक्तित्‍व को एक्‍सपोजर की चाहत शीर्षक से छपे इस आलेख में यह बात अखरी की कहीं भी इस ब्‍लॉग को चलाने वाले यशवंतजी का नाम ही नहीं दिया गया। लेख हूबहू प्रकाशित किया जा रहा है।
एकाकी व्‍यक्तित्‍व को एक्‍सपोजर की चाहतदूर गांवों में रहने वाली भारतीय ग्रामीण आबादी आज भी सूचना क्रांति से कोसों दूर है। शाम होते ही छा जाता है घुप्‍प अंधेरा। खेत-खलिहान से लेकर घर तक पसरे सियाह अंधेरे को चीरने के लिए रियायती मिट्टी का तेल भी बड़ी मुश्‍किल से जुटा पाते हैं ऐसे ग्रामवासी। बीमार हो जाएं तो जिले या किसी बड़े कस्बे से पहले कोई डॉक्‍टर ही नहीं मिलता। डॉक्‍टर कहीं दूर उपलब्‍ध भी हो तो वहां तक समय से पहुंचना भी उन लोगों के लिए टेढ़ी खीर होती है। सरकारी आंकड़ों में गांवों भी सुविधाओं को देखें तो सचमुच लगता है कि काफी बदल गए हैं भारत के गांव। यह अलग बात है कि चुनाव जीतने का नया हथकंडा अब गांव और किसान ही बन गया है। यानी राजनीति और बाजारवाद के निशाने पर भारत के वह गांव भी हैं, जो अब तक अपनी ही लय-ताल में विकास के लिए आजादी के बाद से सरकार भी ओर हर चुनाव में आशा भी नजर से देखते हैं मगर मिलती निराशा है।
यह चिता संसद में किसी ऐसे विपक्षी सांसद द्वारा व्यक्‍त नहीं भी गई है जो येन-केन प्रकारेण सरकार को कटघरे में खड़ा करने के लिए बेताब रहता हो, बल्कि ब्‍लॉगस्पॉट पर भड़ास नामक एक ब्‍लॉग से ली गई चंद पंकि़तयां हैं। डॉ. मान्धाता सिंह द्वारा `गांव को गांव ही रहने दो यारो´ शीर्षक से जारी इस प्रविष्टि में आगे कहा गया है कि हम यहां सरकारी आंकड़ों में विकसित व सुविधासंपन्न हो चुके गांवों का दुखड़ा नहीं रो रहे हैं बल्कि मैं भारत के उन गांवों की बात कर रहा हूं जो भारत के अंधाधुंध शहरीकरण में कहीं खो गए हैं। पंजाब, हरियाणा के किसानों को छोड़ दें तो बाभी देश के छोटे किसान और ग्रामीणों भी दशा में कोई खास सुधार नहीं आया है। ऐसे गांवों के लोगों भी मानें तो उनसे बेहतर तो शहर में सामान्य नौकरीपेशा हैं। ऐसी हीनता भी स्थिति उस भारत के छोटे और मझोले किसानों व ग्रामीणों के लिए ब्‍यों पैदा हुई जहां जुमला है कि- उत्‍तम खेती, मध्यमबान, निषिध चाकरी भीख निदान। बहरहाल एक ग्रामीण परिवेश के छोटे किसान परिवार में जन्मे मान्धाता सिंह को इस बात भी खासी फिक्र है कि शहरों और गांवों के बीच विकास के मुद्दे पर असमानता क्‍यो हैं? वे आगे कहते हैं
कि `गांवों में चौबीस घंटे बिजली चाहिए। शिक्षा व स्वास्थ्य भी वे सारी सुविधाएं चाहिए, जो किसी मामूली से शहर को भी उपलब्‍ध हैं। इसी देश के गुजरात के गांव तो शहरों के साथ कदम मिलाकर चल रहे हैं तो क्‍या वहीं के पारंपरिक गांव देश के नब्‍शे से मिट
रहे हैं। बिल्कुल नहीं। पंजाब, हरियाणा के संपन्न गांव खेती के बल पर ही शहरों से आगे हैं। आखिर वह दिन कब आएगा जब लोग एकाकी व्यक्तित्व को एक्‍पोजर भी चाहत शहर भी जगह गांवों में ही रहने का विकल्प चुनेंगे और गांवों भी आबादी का शहरों भी ओर पलायन रुकेगा?´ इस ब्‍लॉग का मूल मंत्र है कि अगर कोई बात गले में अटक गई हो तो उगल दीजिए, मन हल्का हो जाएगा। इसके बैनर पर यही वाक्‍य लिखा हुआ है।
हालांकि महज इसी बात के लिए शुरू किया गया यह ब्‍लॉग कहने को तो फिलहाल हास्य-व्यंग्य के किसी भी ब्‍लॉग भी तरह नजर आता है लेकिन आगे चलकर यह अच्छे-अच्छे सूरमाओं के लिए भी खतरे भी घंटी साबित हो सकता है क्‍योकि भड़ास भी सूली पर कब-कौन लटका हुआ पाया जाएगा, यह कहना बहुत मुकिल है। इसके अलावा मीडिया भी दुनिया में कौन कहां चला गया है, ये खबरें भी इस ब्‍लॉग पर काफी बहुतायत से हैं। फलां शब्‍स, फलां अखबार या फलां चैनल से फलां अखबार या चैनल में ठीकठाक पैकेज पर पहुंच गया है। यानी कि अगर आपको मीडिया भी दुनिया पर नजर रखनी है, तो आपके लिए ये ब्‍लॉग है।
बहरहाल अगर आप किसी मुद्दे पर किसी से नाराज हैं या आप काफी सोचते हैं तो खुद को जैसे चाहें जाहिर करने का मंच यही है। शायद यही वजह है कि भड़ासियों ने अब अपने तेवर दिखाने शुरू कर दिए हैं। रोज कई नए लोग लिख रहे हैं। कुछ लोग
नियमित रूप से लिखने लगे हैं। ये अच्छी बात है, क्‍योंकि दरअसल जब लिखते हैं तो न सिर्फ लिखते हैं बलिक बहुत कुछ नया सीखते हैं, अपने एकाकी व्यक्तित्व को एक्‍पोजर देते हैं, खुद भी भड़ास से दुनिया को रूबरू कराते हैं। कहिए, आप भी बनना चाहते हैं भड़ासी?

शुक्रवार, 18 जनवरी 2008

दैनिक भास्‍कर में हुई मीडिया मीमांसा की चर्चा


दैनिक भास्‍कर के राष्‍टीय संस्‍करण में शनिवार 12 जनवरी को ओपएड पेज पर ब्‍लॉग वॉच कॉलम में अपने उमेश चतुर्वेदी जी का जिक्र है। र‍वींद्र दुबे जी ने टीआरपी की दौड में भाषाओं के हथियार शीर्षक से एक पूरा लेख लिखा है। उमेशजी मीडिया मीमांसा नाम से ब्‍लॉग लिखते है और टेलीविजन पत्रकार है ब्‍लॉग खबरिया की ओर से उनको बधाई।
टीआरपी की दौड़ में भाषाओं के हथियार
चाहे रीतिकाल की हाला और प्‍याला वाली कविता रही हो या फिर वीरगाथा काल की बहादुरी भरी रचनाएं, अलंकारों के जरिए भाषा को मांजने और चमकाने की जो परंपरा शुरू हुई, वह आधुनिक काल के कवि मैथिलीशरण गुप्‍त तक चलती रही। आधुनिक
साहित्य में काव्य शास्त्र के इस अहम आभूषण की एक बार फिर से जोरदार वापसी हुई है। आपको भरोसा नहीं हो रहा है तो देखिए ना खबरिया चैनलों की स्टोरियां। काव्यशास्त्र के विद्वान और अलंकारों के सिद्धांतकार आचार्य कुंतक की आत्मा अगर स्वर्ग में होगी तो अपने अनुप्रास अलंकारों के इस नए अवतार को देखकर खुश हो रही होगी। आप भी जरा याद कीजिए ना
- आफत में आशियाना, जिंदगी की जंग,
मनमोहन की मनुहार, सिंगुर का संग्राम,
नंदीग्राम में संग्राम, जासूस कहां है जसवंत,
म मी मैं आ रहा हूं, निठारी के
नरपिशाच....।
मौजूदा दौर की टीवी पत्रकारिता पर यह चुटकी लेने वाले कोई उमेश चतुर्वेदी हैं, जिन्होने मीडियामीमांसा नामक ब्‍लॉग ब्‍लॉगस्पॉट पर शुरू किया है। वे आगे लिखते हैं कि टीआरपी की दौड़ में आगे बने रहने के लिए भाषा भी हथियार बन रही है। इसके पीछे अंग्रेजी के कुछ शब्‍दों की बड़ी भूमिका है। ये शब्‍द हैं-अपमार्केट और डाउनमार्केट। अब आप सोचेंगे कि शब्‍दों के इस विवेचन खेल में अंग्रेजी के ये शब्‍द कहां से आ गए।
लेकिन टीआरपी को खुश रखने के लिए इन तीनों शब्‍दों का ही सहारा लिया जाता है। दरअसल आज की बदलती दुनिया में खाए-अघाए लोगों का एक वर्ग भी विकसित हो चुका है, टीआरपी की माया भी इसी वर्ग को लुभाने और खुश करने की है – क्‍योंकि यही वह वर्ग है - जिसके पास खरीद की क्षमता है। खबरिया चैनलों को विज्ञापन देने वाले तभी विज्ञापन देंगे, जब ये वर्ग उनके सामानों और उत्पादों की खरीदारी करेगा।
37 वर्षीय चतुर्वेदी पेशे से टेलीविजन पत्रकार हैं और उनके इस ब्‍लॉग का नाम है सूचना संसार। बहरहाल उन्होंने अपने इस ब्‍लॉग में जन सामान्य के पाठकवृंद को टीआरपी से संबंधित कई जानकारियां दी हैं कि किस तरह गांवों का इलाका डाउन मार्केट श्रेणी में आता है और क्‍यों उन पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है। उनका कहना है कि भारत के कई इलाके इस टीआरपी रेटिग के परे हैं और बावजूद वहां पर ढेरों खबरें होने के उन्हें पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया जाता है। इस ब्‍लॉग पर दिलचस्प सामग्री और भी है।
मसलन उन्होंने फिल्म पर कुछ नए विचार व्यक्‍त करने के दौरान फिल्म और साहित्य या रचनाधर्मिता के अंतद्वर्द्व को जाहिर किया है। यानी कुछ जानीमानी रचनाओं पर जब फिल्में बनी या बनाई गई तो उनमें कुछ परिवर्तन किया गया। कुछ रचनाकारों ने तो इसे बर्दाश्‍त कर लिया लेकिन कुछ लेखकों ने कसम खा ली कि आगे से अपनी कोई भी रचना वे फिल्मोद्योग को नहीं देंगे।
इसके अलावा इसी ब्‍लॉग पर दिनमान पत्रिका के सहायक संपादक रहे जितेंद्र गुप्‍त का साक्षात्कार भी है, जिसमें उन्होंने भारतीय पत्रिका के बदलते हुए स्वरूप के बारे में अपने विचार व्यक्‍त किए हैं। एक वरिष्ठ पत्रकार का यह
इंटरव्यू कई मायनों में काफी जानकारीपरक है, जिसमें आजादी के बाद से आज के मौजूदा दौर तक की पत्रकारिता की कथा यात्रा का पूरा-पूरा लेखाजोखा ज्यों का त्यों रख दिया गया है। ये सब कुछ ऐसे मुद्दे हैं जो एक तरफ तो नए हैं दूसरी तरफ सामान्य हिंदी प्रेमी पाठकों के लिए उपयोगी भी हैं।
आप सोच सकते हैं कि ऐसी कौन सी बात है जो मैं मात्र किसी एक ब्‍लॉग का इतना लंबा चौड़ा बखान किए जा रहा हूं। ऐसे में आपकी जानकारी के लिए मुझे बताना ही पड़ेगा कि अंग्रेजी में मीडिया पर इंडियनटेलीविजनडॉटकॉम या दी हूट ऑट ओर्ग जैसी अनेकों ब्‍लॉग्स और साइटें मौजूद हैं, जो मीडिया और उसके कई संचार माध्यमों का पूरा-पूरा
पोस्टमार्टम किए रहती हैं। लेकिन हिंदी में मीडिया पर मीडिया मीमांसा या सूचना संसार फिलहाल एकमात्र साइट है, जिसने मीडिया और उसकी विषयवस्तु जैसे संवेदनशील मुद्दों की तरफ ध्यान खींचने का एक सराहनीय प्रयास किया है। यदि इसे यूं भी कहा जाए कि इस तरह के मुद्दों पर होने वाली बहसें हिंदी पत्रकारिता जैसे विषय पर एक सार्थक पहल की शुरूआत
है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। आखिर मीडिया को कटघरे में खड़ा करना किसी मीडियाकर्मी के लिए दरिया में रहकर मगर से बैर मोल लेने वाली बात है और कहना न होगा कि इसके लिए काफी साहस की जरूरत होती है जिसके लिए चतुर्वेदी सचमुच साधुवाद के पात्र हैं।

गुरुवार, 17 जनवरी 2008

बधाई हो कीर्तिशजी, आजकल तो छाए हुए हो

अपने कीर्तिश भाई के कार्टून आजकल खूब धूम मचा रहे हैं। भडास पर यशवंत जी ने उन्‍हें लगाकर पूछ लिया कि किसके हैं। जवाब मिल गया उन्‍हें, उसके बाद भी लोगों को अब तक पता नहीं चला। दैनिक हिंदुस्‍तान ने नई दिल्‍ली एडिशन में गुरुवार 17 जनवरी को 'नैनो को जादू' शीर्षक से अंतिम पेज पर आपके दस कार्टून लगाकर लिखा है कि नैनो की एक झलक ने ही सारी दुनिया का मन मोह लिया है। आने वाले दिनों में नैनो का असर क्‍या होने वाला है, यह किसी व्‍यंग्‍यचित्रकार ने उकेरने की कोशिश की है। ये चित्र ईमेल के मार्फत सायबर वल्‍र्ड में सफर कर रहे हैं। हिन्‍दुस्‍तान के पाठकों के लिए ये चित्र साभार यहां पेश हैं।
भाई ये दनादन व्‍यंग्‍य अपन के कीर्तिश भट़ट जी के हैं। वे नई दुनिया से जुडे हुए हैं और बामुलाहिजा नाम से ब्‍लॉग भी चलाते हैं।

सोमवार, 7 जनवरी 2008

ब्‍लॉग ने ढीले किए मैथ ज्‍योग्राफी के पेंच


5 जनवरी के हिन्‍दुस्‍तान के दिल्‍ली एडिशन में पहले पेज पर ब्‍लॉग से संबंधित यह खबर प्रकाशित की है। इसमें ज्‍योग्राफी और गणित से रिलेटेड ब्‍लॉग हैं। जो बच्‍चों को पढाई में मदद कर सकते हैं।
हालांकि हमें हिंदी ब्‍लॉग्‍स पर काम करना है, पर फिलहाल सर्च करते समय यह जानकारी मिली तो उपलब्‍ध करा रहा हूं।
अगर आपके पास भी कोई जानकारी है तो कृपया jaipurblogmaster@gmail पर मेल कर सकते हैं।

रविवार, 6 जनवरी 2008

ब्‍लॉग की खबर रखेगा ब्‍लॉग खबरिया

यह ब्‍लॉग पूरे हिंदी चिटठाजगत को समर्पित है। ब्‍लॉग और ब्‍लॉगकारिता से संबंधित आपके पास कोई भी जानकारी हो तो कृपया jaipurblogmaster@gmail.com पर मेल करें। प्रयास है कि धीरे धीरे करके ब्‍लॉग जगत के सभी नामचीन लोगों का प्रोफाइल मय फोटो यहां उपलब्‍ध कराया जाए।
इसके साथ साथ ब्‍लॉग जगत के धुरंधर तकनीकी एक्‍सपटर्स की मदद लेकर ब्‍लॉग से संबंधित किसी भी परेशानी में आपकी मदद की जा सके।