बुधवार, 30 अप्रैल 2008

धीरे-धीरे छा जाएगा ब्लॉगवाद

मोहल्‍ला वाले अविनाशजी ने एनडीटीवी की वेबसाइट एनडीटीवी खबर पर यह लेख लिखा है, आप लोगों की सुविधा के लिए यह यहां हूबहू दिया जा रहा है। आप इसे एनडीटीवी खबर पर भी पढ सकते हैं।
सृजनशिल्पी हिन्दी के शुरुआती ब्लॉगर हैं, संसद भवन में नौकरी करते हैं। असल नाम कुछ और है और ज़ाहिर न करने की नैतिक मजबूरी नौकरी से जुड़ी है। घुघूती बासूती गुजरात के एक शहर में रहती हैं। 60 पार की यह महिला कई गंभीर व्याधियों से जूझ रही हैं और ब्लॉगिंग उनके लिए पीड़ा हरने वाले औजार की तरह है। वह अपने ब्लॉग पर कविताएं लिखती हैं और अपने समय से बातचीत करते हुए कई सारे सवाल भी खड़े करती हैं। अनामदास लंदन में पत्रकार हैं और हिन्दी में उनका ब्लॉग सबसे संजीदा और साफ-सुथरा माना जाता है। एक आस्तीन का अजगर है, जो अखाड़े का उदास मुगदर के नाम से ब्लॉग चलाते हैं। कहां रहते हैं, क्या करते हैं, किसी को नहीं पता, लेकिन इन दिनों प्रेम कथाओं की बेहद मार्मिक सीरीज़ की वजह से वह ख़ूब चर्चा में हैं।
ये तमाम नाम हिन्दी ब्लॉगिंग के वे चेहरे हैं, जो लोगों के सामने एक समानांतर रेखा के रूप में ज़ाहिर हैं। इनके अलावा सैकड़ों ऐसे लोग हैं, जो मूल नाम की केंचुल उतारकर अपरिचित-अनाम नामों से ब्लॉगिंग की पगडंडी पर टहल रहे हैं। नाम-गाम-पता वाली किताबी दुनिया से अलग अंतर्जाल की आभासी दुनिया में ये ख़ामोशी से खुद को अभिव्यक्त करते रहना चाहते हैं। इनमें से ज्‍यादातर अंग्रेज़ी अच्छी-तरह जानने-समझने वाले लोग हैं, लेकिन मादरी ज़बान में अपने अदृश्य एकांत को लिखना इन्हें सुख देता है, इसलिए ये हिन्दी में ब्लॉगिंग करते हैं।
ताक़तवर हो चले मीडिया की जगज़ाहिर सीमाओं के बीच ब्लॉग ऐसा हथियार है, जिसकी चाभी चंद लोगों के हाथ में नहीं है। यह एक सामाजिक हथियार है और अपनी बात कहने के लिए सबसे अधिक लोकतांत्रिक मंच, जहां फिलहाल न माधो से लेना पड़ता है, न ऊधो को देना पड़ता है। 2004 में जब सुनामी आई थी, इसकी ताक़त का अंदाज़ा हुआ था। जान-माल के नुक़सान की सरकारी गिनतियों के अलावा सच तक पहुंचने का कोई स्रोत नहीं था। ऐसे में कुछ लोगों ने अपने साथ गुज़र रही दिक्कतों को ब्लॉग पर लिखना शुरू किया। तब जाकर सुनामी की डरावनी कहानियों के हज़ारों पाठ दुनिया के सामने थे।
'90 के दशक में ब्लॉगिंग दुनिया के सामने आई, लेकिन हिन्दी में यह इसी सदी की घटना है। 21 अप्रैल, 2003 को आलोक कुमार नामक एक सज्जन ने बेंगलुरू में हिन्दी का पहला ब्लॉग लिखा। पहला वाक्य था, नमस्ते, क्या आप हिन्दी देख पा रहे हैं। यह एक भाषा के लिए उम्मीद की सबसे पहली रोशनी थी। इससे पहले कुछ वेबसाइट थीं, जो हिन्दी फॉन्ट का इस्तेमाल करती थीं, लेकिन वे फॉन्ट यूनिकोड नहीं थे, यानि उन्हें देखने के लिए आपको फॉन्ट डाउनलोड करना पड़ता था। अंग्रेज़ी कहीं भी आसानी से कॉपी-पेस्ट हो जाते हैं, लेकिन हिन्दी में यह मुश्किल था। हिन्दी का यूनिकोड वर्ज़न आ जाने के बाद यह आसान हो गया, लेकिन सवाल यह था कि एक्सएमएल और एचटीएमएल भाषा वाले अंग्रेज़ियत से भरे अंतर्जाल में सूरजमुखी की तरह उग आए ब्लॉग शब्द को हिन्दी में क्या कहा जाए?
24 जुलाई, 2003 को आलोक कुमार लिखते हैं, 'कहीं दूर जब दिन ढल जाए... गाना बज रहा है और मैं लिख रहा हूं ब्लॉग। यार ब्लॉग की हिन्दी क्या होगी, अभी तक नहीं सोच पाया। चलो, दूसरी तरह से सोचते हैं। मैं अपनी दादी को कैसे समझाऊंगा कि यह क्या है? मशीनी डायरी? शायद। वैसे दोनों शब्द अंग्रेज़ी के हैं।' एक शब्द खोजा गया, चिट्ठा, इसीलिए अगर आप हिन्दी ब्लॉगिंग के शुरुआती पन्नों को पलटेंगे तो आपको ये शब्द बार-बार मिलेंगे। रवि रतलामी, फुरसतिया, मसिजीवी, ई-स्वामी, उड़नतश्तरी जैसे ब्लॉगर अब भी चिट्ठा शब्द का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन 2007 यानि पिछले साल जब भारी तादाद में लोगों ने हिन्दी में ब्लॉग बनाए, चिट्ठा शब्द धीरे-धीरे धुंधला पड़ गया।
आज हिन्दी में चार हजार से ज्यादा ब्लॉग है। 2005 के दिसंबर में यह संख्या कुछ सौ की थी। एक टीवी चैनल से जुड़े मेरे पत्रकार मित्र दिलीप मंडल को उम्मीद है कि यह संख्या 2008 में कम से कम दस हज़ार हो जाएगी। अपने ब्लॉग रिजेक्ट माल पर वह लिखते हैं, 'टेक्नोलॉजी जब आसान होती है, उसे अपनाने वाले दिन दोगुना, रात चौगुना बढ़ते हैं। मोबाइल फोन को देखिए। एफएम को देखिए। हिन्दी ब्लॉगिंग फॉन्ट की तकनीकी दिक्कतों से आज़ाद हो चुकी है, लेकिन इसकी ख़बर अभी दुनिया को हुई नहीं है।' अभी बाज़ार की दिलचस्पी हिन्दी ब्लॉगिंग में नहीं है। वजह साफ है, कम ब्लॉगर, कम पाठक। लेकिन जिस तेज़ी से यह संख्या बढ़ रही है और जिस तेज़ी से बड़े घराने हिन्दी में वेबसाइट ला रहे हैं, उससे साफ़ लग रहा है कि हिन्दी सिनेमा और लोक संगीत के बाद अगर सबसे अधिक पॉपुलर कोई इवेन्ट होने जा रहा है, तो वह है ब्लॉग। तब हिन्दी में सिर्फ ब्लॉगिंग करके भी रोज़ी-रोटी कमाई जा सकेगी।
अंग्रेज़ी में कई लोग हैं, जो सिर्फ़ ब्लॉगिंग करके कमा-खा रहे हैं। लैबनॉल ब्लॉग के मॉडरेटर अमित अग्रवाल ने एक बार अपने ब्लॉग पर ख़बर दी कि वह रोज़ाना क़रीब एक हज़ार डॉलर कमाते हैं। उनकी ख़बर की तस्दीक़ गूगल एडसेंस ने भी दी, जो अंतर्जाल पर विज्ञापन बांटने वाली सबसे बड़ी एजेंसी है। ज़ाहिर है, यह रक़म अंग्रेज़ी में ही कमाई जा सकती है। लैबनॉल की ई-मेल ग्राहक संख्या 20000 के आसपास है और अंग्रेज़ी में लैबनॉल जैसे कई ब्लॉग हैं। लेकिन हिन्दी में सबसे अधिक ई-मेल ग्राहक संख्या वाला ब्लॉग रवि रतलामी है और आपको यह जानकर हैरानी होगी कि ये संख्या 200 के आसपास है।

सोमवार, 10 मार्च 2008

महिला ब्‍लॉगर्स को मिली अमर उजाला में जगह


अमर उजाला की महिला मैगजीन 'रूपायन' में सात मार्च को महिला ब्‍लॉगर्स पर पूरे दो पेज छपे हैं। सुजाता जी के इस लेख में छह महिला ब्‍लॉगर्स की फोटो भी छपी है। इनमें लिकिंत मन और मुझे कुछ कहना वाली नीलिमा और नीलिमा सुखिजा अरोडा, मनीषा पांडेय और बेजी समेत छह लोगों की फोटो भी छपी है। सभी को बधाई।

हिन्दी ब्लॉगिंग में स्त्रियाँ और स्त्रियों की ब्लॉगिंग
कहा जाता है कि ब्लॉगर बस ब्लॉगर है उसका कोई जेंडर नही होता । पर अब तक की ब्लॉगिंग के बारे में बनी समझ के हिसाब से यह लगने लगा है कि स्त्रियों के लिये ब्लॉगिंग वाकई खास है और इसे देखने समझने के लिये एक वैकल्पिक सौन्दर्यशास्त्र की दरकार है । एक पूर्वाग्रह ग्रस्त मानसिक खाँचे में इसे देखना सही मूल्यांकन नही हो पाएगा । हिन्दी के अब तक 2200 से 2500 के लगभग चिट्ठे जिनमे सक्रिय चिट्ठे 750-800 हैं ।और इनमें स्त्रियो के चिट्ठे जो अभी एक सैकडा भी पार नही कर पाए , लेकिन अपनी एक सशक्त उपस्थिति लगातार दर्ज करा रहे हैं । ब्लॉगवाणी से प्राप्त आँकडों के मुताबिक महिलाओं के चिट्ठों की संख्या 80 से 90 के बीच है । इनमें सक्रिय महिला ब्लॉगर केवल 30-32 के लगभग हैं उनमें भी गद्य लिखने वाली ब्लॉगर्स लगभग 15 से 20 ही हैं ,बाकी केवल काव्य लिखती हैं ।
। इनमें कुछ प्रमुख ब्लॉगर्स हैं – बेजी , नीलिमा ,घुघुती बासुती,मनीषा पांडेय ,प्रत्यक्षा,पारुल , नीलिमा सुखीजा अरोडा ,ममता ,अनुराधा श्रीवास्तव ,लावण्या शाह , अनिता कुमार ,आभा ,मीनाक्षी , निशामधुलिका ,स्वप्नदर्शी ,रचना ,रंजना ,सीता खान । शोभा महेन्द्रू ,पूनम पांडेय और रश्मि भी यदा कदा लिखती हैं ।जैसे दुनिया के अन्य किसी क्षेत्र में स्त्री की उपस्थिति है लगभग वही यहाँ भी है । फिर भी हिन्दी ब्लॉगिंग स्त्री के लिये खास है और ब्लॉगिंग मे स्त्री की उपस्थिति खास है । हाँलाकि यह स्थिति तब है जबकि पिछ्ले एक साल में स्त्री ब्लॉगर्स की संख्या मे तेज़ी से इज़ाफा हुआ है पर महत्वपूर्ण यह है कि जो नियमित रूप से सक्रिय हैं वे क्या लिख रही है।
स्त्री के लिये ब्लॉगिंग के मायने कुछ इसलिये भी अलग हो जाते हैं कि ऐसा अकेला माध्यम है जो एक आम स्त्री को आत्माभिव्यक्ति के अवसर देती है बिना किन्हीं भौतिक दिक्कतों के और ऐसे समाज में जहाँ उसके लिये खुद को अभिव्यक्त करने के अवसर और तरीके बहुत सीमित हों । ऐसे में ब्लॉग्स्फियर पर स्त्रियाँ विविध विषयी लेखन कर रही हैं। कविताएँ रच रही हैं । विमर्श कर रही हैं । बाज़ार को देख रही हैं उसकी नब्ज़ पकद रही हैं ।संसार रच रही हैं । संसार को समझ रही हैं । बोल रही हैं । सम्वाद कर रही हैं शास्त्रीय संगीत में स्नातकोत्तर पारुल अपने ब्लॉग “पारुल चान्द पुखराज का ” में गज़लें और नगमों के पॉडकास्ट देती हैं ।प्रत्यक्षा अपने ब्लॉग में जीवन की सच्चाइयों से जुडी अनुभूतियों को कहानी कविता और गद्य में रचनात्मक अभिव्यक्ति देती हैं ।नीलिमा चौहान अपने ब्लॉग “लिंकित मन” में ब्लॉग पर किये गये शोध सम्बन्धित लेखन करती हैं और अपने अन्य ब्लॉग “आँख की किरकिरी’ में स्त्री व समाज के अन्य उपेक्षितों से जुडे भावनात्मक वैचारिक लेख लिखती हैं । घुघुती बासूती और बेजी भी अपने अनुभवों ,भावनाओं और विभिन्न विषय़ों पर अपना दृष्टिकोण व्यक्त करती हैं ।नीलिमा सुखीजा अरोडा मीडिया से जुडी हैं और मीडिया व स्त्री से जुडे सवालों को उठाती है । लावण्या शाह दुनिया घूमते घामते खींची गयी तस्वीरे और एकत्र की गयी जानकारियाँ देती है ।आभा स्वांत:सुखाय लिखती हैं ।

स्त्री जब ब्लॉगिंग करती है तो पुरुष मानस में शायद पहला सवाल यह आता है कि “फिर खान कौन बनाता है ?” खाना बनाना एक कर्म है जो बच्चे पालना , घर समेटना , नौकरी भी करना ,जैसे कई कर्मॉ को समेतता है । ब्लॉगिंग के लिये स्त्री को इन्ही सब सामाजिक पारिवारिक और व्यावसायिक दायित्वों के बीच से समय निकालना होता है । इसलिये ब्लॉग जगत में भी ऐसे प्रकरण यदा-कदा उठते रहे हैं । इसलिये अनुराधा श्रीवास्तव अपनी एक टिप्पणी मे लिखती हैं -
“कल्पना करिये की कोई गृहिणी कह रही है कि उसे ब्लाग पढने या पोस्ट करने जाना है तो सब उसे पागल समझेंगें।“
आभा की दिक्कत यही है कि उसे लेखन से प्यार है लेकिन “बेटा एक दिन वह स्कूल से लौटा और मैं अपनी पोस्ट को खतम करने में लगी थी...मैंने उससे दो मिनट रुकने को कहा...बेटे ने कहा हमारा ...घर बर्बाद हो गया है” ऐसे मे उसके सामने सवाल आता है कि उसका अपना घर ज़्यादा ज़रूरी है कि ब्लॉग ।
प्रत्यक्षा इस मानसिकता के प्रति अपना विरोध दर्ज करती हैं और स्त्री के प्रति रखी जाने वाली दोगली सोच का उद्घाटन करती हैं-
“आखिर कौन नहीं चाहता कि पत्नी कामकाजी या होममेकर , आपको घरेलू जंजालों से मुक्त रखे ताकि आप नेरूदा फेलूदा पढ़ते रहें ? आपकी इच्छायें ? और स्त्री की इच्छायें ? मैं ये चाहती हूँ ..तक भी कहने न दें ? आप कहेंगे मैं उदार हूँ , मैंने पत्नी को समान
अधिकार दिया है । इस “दिया” शब्द से कभी परेशानी होती है ? नहीं होती क्योंकि आप आत्ममुग्धता में नहाये हैं कि मैं कितना प्रोग्रेसिव हूँ .. न सिर्फ बोलता हूँ , करता भी हूँ “।
स्त्री के ब्लॉगिंग करने या पाब्लो नेरुदा को पढने के पीछे उसके अस्मितावान होने के अहसास का बोध है । गृहलक्ष्मी , गृहशोभा ,विमेंस इरा ,सरिता पढने में ऐसे खतरे कम हो जाते हैं ।घुघुती बासुती लिखती हैं - नोटपैड बहना ,क्यों डराती हो इतना ? चलो मिल बनाए गुझिया,जिसे देख सीखे अपनी गुड़िया,चलो लगाएँ उसे भी रसोई मेंक्या धरा है उसकी पढ़ाई में ?पढ़ना ही है तो कितना है पढ़ने को-पढ़ो ‘गृ ये सिखाती हैं तरीके पति को रिझाने के, बैंगन का नये तरीके का भर्ता बनाने केमुन्ने को मालिश कर सुलाने के, ( मुन्नी को नहीं )तरीके है पार्टी में मेकअप लगाने के, बच्चों को बहलाने के,रूठे पति को मनाने के,हशोभा’, ‘गृहलक्ष्मी’, ‘मेरी सहेली’ ,
तो हमें अपने नोटपैड पर लिखने का मन होता है कि-ब्लॉगिंग और पाब्लो नेरुदा पढने में कोई फर्क नही है .... “शॉपिंग के लिए जाती औरतें ,करवाचौथ का व्रत करती औरतें , सोलह सोमवार का उपास करती औरतें , होली पर गुझियाँ बनाती औरतें , पडोसिन से गपियाती औरतें -- अजीब नही लगतीं । बहुत सामान्य से चित्र हैं । लेकिन व्रत ,रसोई,और शॉपिंग छोड कर ब्लॉगिंग करती या पाब्लो नेरुदा पढती औरतें सामान्य बात नही । यह समाजिक अपेक्षा के प्रतिकूल आचरण है। आपात स्थिति है यह । ब्लॉगिंग और नेरुदा पति ही नही बच्चों के लिए भी रक़ीब हैं । यह डरने की बात है । अनहोनी होने वाली है । सुविधाओं की वाट लगने वाली है’
मनीषा पांडेय का ब्लॉग “बेदखल की डायरी” अपने नाम में ही स्त्री की सीमांतीय स्थिति का द्योतक है। बडी होती लडकियाँ लेबल में वे लडकियों के पालन-पोषण में ही छिपे उसकी कमज़ोरी के बीज ढूंढती हैं तो वहीं अच्छी लडकी के लेबल के तले लडकियों की घुटन को अभिव्यक्त करती हैं ।वे लिखती हैं –“ जो मिला, सबने अपने तरीके से अच्‍छी लड़की के गुणों के बारे में समझाया-सिखाया। और मैं हमेशा उन गुणों को आत्‍मसात करने के लिए कुछ हाथ-पैर मारती रही, क्‍योंकि कहीं-न-कहीं अपने मन की बात, अपनी असली इच्‍छाएं कहने में डरती हूं, क्‍योंकि मुझे पता है कि वो इच्‍छाएं बड़ी पतनशील इच्‍छाएं हैं, और सारी प्रगतिशीलता और भाषणबाजी के बावजूद मुझे भी एक अच्‍छी लड़की के सर्टिफिकेट की बड़ी जरूरत है। हो सकता है, अपनी पतनशील इच्‍छाओं की स्‍वीकारोक्ति के बाद कोई लड़का, जो मुझसे प्रेम और शादी की कुछ योजनाएं बना रहा हो, अचानक अपने निर्णय से पीछे हट जाए। “
कैसी स्त्री आज़ाद है या प्रगतिशील है ? यह प्रश्न वास्तव में कितना निरर्थक है इसे बताते हुए बेजी कहती हैं कि -ऑफिस जाती, कार चलाती आत्मनिर्भर औरत आज़ाद है ...कोई जरूरी नहीं है....घर में बैठ,साड़ी पहनी ,खाना बनाती अपने बच्चों की परवरिश करती औरत परतंत्र हो यह भी जरूरी नहीं है.....प्रतीक मात्र हैं...जिनसे कुछ सिद्ध नहीं होता..है ।स्त्रियों में इस बात की चिंता दिखाई देती है कि स्त्री को अभी स्वयम को ही स्त्रियोचित से मुक्ति पानी है । नीलिमा चौहान लिखती हैं- “स्त्री का परंपरागत संसार बडा विचित्र भी है और क्रूर भी है -यहां उसकी सुविधा ,अहसासों , सोच के लिए बहुत कम स्पेस है !गहने कपडे और यहां तक कि वह पांव में क्या पहनेगी में वह अपनी सुविधा को कोई अहमियत देने की बात कभी सोच भी नहीं पाई ! अपने आसपास की लडकियों महिलाओं के पहनावे की तरफ देखते हैं तो उनकी जिंदगी की विडंबना साफ दिखाई देती है ! परंपरागत महौल परंपरागत महौल में पली बढी यह स्त्री अपने दर्शन में स्पष्ट होती है --कि उसका जीवन सिर्फ पर सेवा और सबकी आंखों को भली लगने के लिए हुआ है ! छोटी बच्चियां घर- घर , रसोई -रसोई ,पारलर-पारलर खेलकर इसी सूत्र को अपनी जिंदगी का हिस्सा बना लेने की ट्रेनिंग ले रही होती हैं .......ठीक उसी समय जब उसकी उम्र के लडके गन या पिस्तौल से मर्दानगी के पाठ पढ रहे होते हैंपर अपने संधर्ष में अपने ही साथ नहीं हैं ये पैरों की हील ,ये पल्लू ,ये लटकन , ये नजाकत ! कहां से आ जाएगी बराबरी”

ब्लॉगिंग में स्त्रियों के लिये एक बडी सुविधा अनाम रह कर लिखने की है । ऐसे समाज में जहाँ अपनी इच्छाओं की अभिव्यक्ति स्त्री के चरित्र पर उंगली उठाने वालों को उकसाती हैं ,ब्लॉगिंग उसे इस बात की सहूलिय देती है कि वह अनाम होकर अपने विचारों और अनुभवों को अभिव्यक्त कर सके ।स्वप्नदर्शी अपना ब्लॉग इसी छ्द्मनाम से ही लिखती हैं ।दरअसल ब्लॉग जहत का ढांचा भी हमारी संरचना का एक हिस्सा भर ही है ! इसलिए यहां स्त्री विमर्श और संघर्ष के मुद्दों का उठना-गिरना -गिरा दिया जाना -हाइजैक कर दिया जाना -कुतर्की, वेल्‍ली और छुट्टी महिलाओं का जमावडा करार दे दिया जाना ---जैसी अनेक बातों का होना बहुत सहज सी प्रतिक्रिया माना जाना चाहिए !इस लिहाज़ से “चोखेर बाली ” जैसे सामुदायिक ब्लॉग का आना और उसे नज़रअन्दाज़ किये जाने की कोशिश को देख कर हमारे सामने ब्लॉग जगत का स्त्री के प्रति असंवेदनशील नजरिया डीकोड हुए बिना नहीं नहीं रहता !”चोखेर बाली” {आँख की किरकिरी sandoftheeye.blogspot.com }स्त्रियों का ऐसा मंच है जहाँ वे खुद से जुडे मुद्दों और सवालों को कुछ आपबीती कुछ जगबीती के अन्दाज़ में कहती है । आज भी समाज जहाँ ,जिस रूप में उपस्थित है - स्त्री किसी न किसी रूप में उसकी आँखों को निरंतर खटकती है जब वह अपनी ख्वाहिशों को अभिव्यक्त करती है ; जब जब वह अपनी ज़िन्दगी अपने मुताबिक जीना चाह्ती है , जब जब वह लीक से हटती है । जब तक धूल पाँवों के नीचे है स्तुत्य है , जब उडने लगे , आँधी बन जाए ,आँख में गिर जाए तो बेचैन करती है । उसे आँख से निकाल बाहर् करना चाहता है आदमी । कुछ पुरुष सहयोग और कुछ समर्थ में तो कुछ इस अन्दाज़ से यहाँ आते हैं कि “देखें ये स्त्रियाँ कुल मिला कर क्या चाहती हैं ’अभी शुरुआत भर है । अभी मंज़िलें ढूंढनी बाकी हैं । बातों सवालों विवादों के रास्ते सम्वाद तक भी पहुँचना है और खास बात है कि ब्लॉग पर स्त्रियो को अपनी मध्यमवर्गीय चिंताओं से ऊपर उठकर आम औरत की आवाज़ को भी सुनना और कहना है ।
- मुख्य महिला चिट्ठाकारों के चिट्ठों के वेब पते
- Beji-viewpoint.blogspot.com
- bakalamkhud.blogspot.com
- pratyaksha.blogspot.com
- linkitmann.blogspot.com
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- parulchaandpukhraajkaa.blogspot.com
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- lavanyashah.com
- mamtatv.blogspot.com
- nishamadhulika.com

सोमवार, 25 फ़रवरी 2008

भास्‍कर में आखों की किरकिरी


दैनिक भास्‍कर जयपुर में सोमवार 25 फरवरी 2008 को विमर्श पेज पर चोखेर बाली की चर्चा हुई है। ब्‍लॉग बतंगड नाम का यह कॉलम हर सोमवार को प्रकाशित किया जा रहा है। पर संपादक या लेखक का नाम नहीं दिया गया है। आपकी सुविधा के लिए यह लेख पूरा दिया जा रहा है। चोखेरबाली की टीम को एक बार फिर बधाई।

आंखों की किरकिरी: चोखेरवाली
तय है कि ब्‍लॉग उदय का एक नया प्रयास कुछ
गुल जरूर खिलाएगा। ईमानदारी की चाशनी में
घुटी ऐसी कोशिश शुरू की है मनीषा पांडे ने अपने ब्‍लॉग
चोखेरवाली से। वह दिल से कहती हैं वे पतित होना
चाहती हैं भले ही इसके समानांतर अच्छी लड़की होने
के नाम से भावुक होकर आंसू टपकाती रहूं। मेरे जैसी
और ढेरों लड़कियां हो सकती हैं, जो अपनी पतनशीलता
को छिपाती फिरती हैं लेकिन अच्छी लड़की के सर्टिफिकेट
की चिंता में मैं दुबली नहीं होऊंगी। मनीषा ने कदम बढ़ाया
तो कई आंखें फटी रह गईं और मुंह बाये देख रही हैं कि
यह पतित पता नहीं क्‍या कर बैठे, पुरुष प्रधान समाज के
कस मानदंड की बखिया उधेड़ दे...लेकन अब कारवां
बन चुका है।
बदलाव की आहट सुनाई देने लगी है और जिन्हें नहीं
सुनाई देती उन्हें ये सुनने को मजबूर कर देंगी। उनके तेवर
कुछ ऐसे हैं कि जिन पुरुषों ने समाज की परिभाषाएं गढ़ी
हैं उनकी आंखों में अंगुलियां डालकर वे एलान करना
चाह रही हैं क तुम गलत हो। वे बताना चाह रही हैं कि
ठीक से हंस लेना केवल तुब्‍हारा ही हक नहीं, पर्दे में
रखकर तुमने गुनाह कया है। वे मांग रही हैं उस आजादी
को जिसे पुरुषों ने अपने घर की बांदी बना रखी है। वे
उन छोटी-छोटी बातों पर ध्यान दिलाती हैं कि क्‍यों घर
की लड़कयों को कहा जाता है छत पर नहीं जाओ, दुपट्टा
हमेशा सिर पर रखो, कसी से ज्यादा हंस-हंस कर बात
नहीं करो, मोहल्ले पर लड़कों की तरह न आया-जाया करो
या फिर घर से बाहर ज्यादा देर तक नहीं रहो...। असल
में मनीषा के बाद पुनीता, सस्ता शेर और फिर मेरी
कठपुतलियां... जैसे ब्‍लॉग उन बातों को कह रही हैं जो
वास्तव में अंधेरी कोठरी में पूर्णमा के चांद की रोशनी
फैला रही हैं। उनकी बातें एक सुहानी सुबह की ओर
इशारा करती हैं। जरा सोचिए इस्मत चुगताई ने 1935 में
उर्दू में `लिहाफ´ लिखी। तब इसे लेकर काफी विवाद हुआ
था। चुगताई ने उस समय ऐसी बातें कहने की हिम्‍मत
दिखाई जब आज से ज्यादा मुश्कलें थीं। 65 साल के
बाद उस पर फिर चर्चा हुई और सन् 2000 में जाकर
उसपर `फायर ´ फिल्म बनी। इसका भी काफी विरोध
हुआ लेकन वह राजनीतिक फायदे के लिए कया गया
विरोध ही कहा जाएगा। कुछ दिनों पहले प्रदर्शित `वाटर´
के साथ भी ऐसा ही हुआ। मतलब जब-जब नारी मुक्ति
की बात होगी तब-तब पुरुष मानसिकता वाले लोग यूं ही
विरोध करेंगे। अब ब्‍लॉग के द्वारा नारी मुक्ति की बातें फिर
की जा रही हैं। उनकी बातें सदियों के अन्याय को सामने
लाती हैं... सच में..।
अब छोटी-सी बात ही लीजिए ब्‍या महिलाएं बिना
बचपन के जवान हो जाती हैं। अब ठुमक-ठुमक चलत
रामचंद्र, बाजत पैजनियां.. पर केवल राम का ही हक ब्‍यों
है ब्‍या केवल कृष्ण ही बाल लीलाएं कर सकते हैं...माता
सीता या फिर राधा ब्‍यों नहीं? वास्तव में कई महान
विभूतियों ने अन्याय कया है।
अब कालिदास का अभिज्ञान शाकुंतलम उठा लीजिए
या फिर मेघदूत हर जगह नारी सौंदर्य का चित्रण है। उनकी
भावनाओं उनके ब्‍यालात को कोई जगह नहीं, ब्‍यों?
ब्रrापुराण में भी ऐसे चित्रण आपको मिल जाएंगे। कई
और पक्ष हैं.. बेटियों के ब्‍लॉग पर जब आप पुनीता से
`बेटियों के ब्‍लॉग´ पर मुखातिब होते हैं तो वे बड़ी
मासूमियत से कठोर सवाल पूछती हैं - बेटियां पराई क्‍यों
होती हैं? एक बेटी की मां का हलफनामा शीर्षक का
उनका लेख तो वास्तव में एक महिला के दर्द को शिद्दत
से बयां करता है। मोहल्ला जैसे कई प्रमुख ब्‍लॉगर इन पर
कान देने लगे हैं और यह बात उठी है कि प्रगतिशीलता
को पतनशीलता कहने की मानसिकता कितनी सही है।
कुल मिलाकर एक कोशिश हो रही है इन बातों को कहने
के लिए लाउडस्पीकर मुहैया कराने की जिससे बात सब
तक पहुंचे, लेकन शोर के रूप में नहीं, सार्थक अथोत में
और शब्‍दों के साथ। नारी मुक्ति की इस नई हवा को सच
में सलाम करने को जी चाहता है।

राजस्‍थान पत्रिका में बेटियों का ब्‍लॉग


राजस्‍थान पत्रिका जयपुर की महिला मैग्‍जीन परिवार में बुधवार 20 फरवरी को बेटियों के ब्‍लॉग पर पूरा एक फीचर छपा है।
आपके लिए यह पूरा की पूरा हुबहू दिया जा रहा है।
आपके पास भी ब्‍लॉग जगत से जुडी कोई खबर हो तो तुरंत सूचित करें।

रविवार, 24 फ़रवरी 2008

हाय रब्‍बा ये क्‍या हो गया


भाई लोगों ब्‍लॉग अपन के जयपुर में तगडा वाला लोकप्रिय हो गया है। डेली न्‍यूज अखबार ने रविवार 24 फरवरी को अपने परिशिष्‍ठ हमलोग में अपन के सुधाकर सोनीजी ने ब्‍लॉग लिखने के शौकिन चोर को पकडवा दिया है।
सुधाकरजी और हमलोग के संपादकजी को बधाई

सोमवार, 18 फ़रवरी 2008

भास्कर के विमशॅ में ब्लॉग-बतंगड़


दैनिक भास्कर जयपुर ने सोमवार १८ फरवरी से साहित्य पर एक विशेष पेज का प्रकाशन शुरू किया है। इसमें ब्लॉग बतंगड़ नाम का एक कॉलम भी शायद छपा है जिसका शीरषक है-चाहूं भी तो खोल नहीं सकती उस घर के दरवाजे--। इस लेख में रवि रतलामी के ब्लॉग पर रचना श्रीवास्तव की पोस्ट है। इसके अलावा इरफान और नसीरुद्दीन, कृपाशंकर का भी जिक्र है। ओमप्रकाश तिवारी के मीडिया नारद ब्लॉग पर फिल्मी गीतकारों और लेखकों को साहित्यकार का दरजा नहीं देने की बहस की भी चरचा है। इस लेख को आप फोटो पर क्लिक करके पूरा पढ़ सकते हैं।

शनिवार, 16 फ़रवरी 2008

बिजनेज स्‍टैंडर्ड हिंदी की पहली एंकर स्‍टोरी ही ब्‍लॉग पर


शनिवार 16 फरवरी को बिजनेस स्‍टैंडर्ड का हिंदी संस्करण रिलीज हुआ। पहले ही अंक में प्रंट पेज की एंकर स्‍टोरी ब्‍लॉग केंद्रित है। खबर का लब्‍बोलुबाव सेलिब्रिटिज के ब्‍लॉगर्स पर केंद्रित है। स्‍कैन्‍ड या ऑनलाइन होने के कारण इसकी इमेज आप तक नहीं पहुंचायी जा सकी है। कोशिश है कि कल यह कमी पूरी कर दूं। राजेश एस कुरुप की यह खबर हूबहू प्रकाशित की जा रही है।
अब उतर आए तारे जमीं पर
राजेश एस कुरूप
मुंबई, 15 फरवरी चाहे वह फिल्‍म हो या खेल, कला हो या साहित्‍य हर क्षेत्र की हस्तियों से मिलने के लिए लोग दीवानगी की हद तक पहुंच जाते हैं। इसके लिए वह मुंबई, कोलकाता या फिर सात समुंदर पार कहीं भी जाने या कैसी भी मुश्किलों को पार करने के लिए तैयार रहते हैं। उसके बाद भी कई बार उनकी हसरत पूरी नहीं हो पाती। मगर अब ऐसा नहीं है क्‍योंकि ये चमचमाते सितारे अब खुद उनके घर की सरजमीं पर आने लगे हैं। जिससे उनके इन दीवानों के लिए खुदाई मददगार बनकर आए हैं, ब्‍लॉग। यकीन नहीं आता तो राजेश शर्मा की ही मिसाल लीजिए, जो कभी शाहरुख खान की झलक पाने के लिए बांद्रा में उनके बंगले मन्‍नत के सामने घंटों खडे रहते थे। दीवानगरी की इंतहा पर पहुंच चुके इस शख्‍स को जिस दिन शाहरुख बंगले से निकलकर कार में चढते दिख जाते थे, तो उस दिन वह खुद को दुनिया का सबसे खुशकिस्‍मत आदमी समझने लगते थे। लेकिन मन्‍नत पर टकटकी लगा कर घंटो रहना अब उनके लिए भी गुजरे जमाने की बात हो चुकी। क्‍योंकि अब तो उनकी रोजाना शाहरुख से बातें होती हैं। शर्मा तो फिल्‍मों और अभिनय के बारे में उन्‍हें सलाह तक दे डालते हैं। और यह सब ठाणे में अपने घर में ही बैठकर करते हैं। इसी तरह एक और खान आमिर खान भी अपने ब्‍लॉग को कभी नहीं भूलते वह अपने ब्‍लॉग पर 50 संदेश डाल चुके हैं। वह इसके जरिए सामाजिक मसले उठाने से भी नहीं चूकते। जैसे, एक संदेश में उन्‍होंने पाइरेसी के खिलाफ आवाज उठाई। उन्‍होंने कहा, मैं उन लोगों से खफा हूं, जिन्‍होंने तोर जमीं पर फिल्‍म पाइरेटेड सीडी डीवीडी या केबल या किसी वेबसाइट पर देखी। बहरहाल, नामचीन लोगों की कतार में मैनेजमेंट गुरु दीपक चौपडा, अभिनेता राहुल बोस, अनुपम खेर, शेखर कपूर, राहुल खन्‍ना, सांसाद मिलिंद देवडा और क्रिकेटर पार्थिव पटेल भी शामिल हैं।