बुधवार, 23 जनवरी 2008

भडास की चर्चा पर यशवंतजी का नाम गायब


19 जनवरी शनिवार को दैनिक भास्‍कर के राष्‍टरीय संस्‍करण में पेज 9 पर ब्‍लॉग उवाच कॉलम में भडास की चर्चा हुई। इस चर्चा में आधा लेख तो ऐसा है, जैसे खेती बाडी का ब्‍लॉग हो। वो तो भला हो कि कहानी खत्‍म होते होते इसमें मीडिया का जिक्र हो गया। पर अपन को एकाकी व्‍यक्तित्‍व को एक्‍सपोजर की चाहत शीर्षक से छपे इस आलेख में यह बात अखरी की कहीं भी इस ब्‍लॉग को चलाने वाले यशवंतजी का नाम ही नहीं दिया गया। लेख हूबहू प्रकाशित किया जा रहा है।
एकाकी व्‍यक्तित्‍व को एक्‍सपोजर की चाहतदूर गांवों में रहने वाली भारतीय ग्रामीण आबादी आज भी सूचना क्रांति से कोसों दूर है। शाम होते ही छा जाता है घुप्‍प अंधेरा। खेत-खलिहान से लेकर घर तक पसरे सियाह अंधेरे को चीरने के लिए रियायती मिट्टी का तेल भी बड़ी मुश्‍किल से जुटा पाते हैं ऐसे ग्रामवासी। बीमार हो जाएं तो जिले या किसी बड़े कस्बे से पहले कोई डॉक्‍टर ही नहीं मिलता। डॉक्‍टर कहीं दूर उपलब्‍ध भी हो तो वहां तक समय से पहुंचना भी उन लोगों के लिए टेढ़ी खीर होती है। सरकारी आंकड़ों में गांवों भी सुविधाओं को देखें तो सचमुच लगता है कि काफी बदल गए हैं भारत के गांव। यह अलग बात है कि चुनाव जीतने का नया हथकंडा अब गांव और किसान ही बन गया है। यानी राजनीति और बाजारवाद के निशाने पर भारत के वह गांव भी हैं, जो अब तक अपनी ही लय-ताल में विकास के लिए आजादी के बाद से सरकार भी ओर हर चुनाव में आशा भी नजर से देखते हैं मगर मिलती निराशा है।
यह चिता संसद में किसी ऐसे विपक्षी सांसद द्वारा व्यक्‍त नहीं भी गई है जो येन-केन प्रकारेण सरकार को कटघरे में खड़ा करने के लिए बेताब रहता हो, बल्कि ब्‍लॉगस्पॉट पर भड़ास नामक एक ब्‍लॉग से ली गई चंद पंकि़तयां हैं। डॉ. मान्धाता सिंह द्वारा `गांव को गांव ही रहने दो यारो´ शीर्षक से जारी इस प्रविष्टि में आगे कहा गया है कि हम यहां सरकारी आंकड़ों में विकसित व सुविधासंपन्न हो चुके गांवों का दुखड़ा नहीं रो रहे हैं बल्कि मैं भारत के उन गांवों की बात कर रहा हूं जो भारत के अंधाधुंध शहरीकरण में कहीं खो गए हैं। पंजाब, हरियाणा के किसानों को छोड़ दें तो बाभी देश के छोटे किसान और ग्रामीणों भी दशा में कोई खास सुधार नहीं आया है। ऐसे गांवों के लोगों भी मानें तो उनसे बेहतर तो शहर में सामान्य नौकरीपेशा हैं। ऐसी हीनता भी स्थिति उस भारत के छोटे और मझोले किसानों व ग्रामीणों के लिए ब्‍यों पैदा हुई जहां जुमला है कि- उत्‍तम खेती, मध्यमबान, निषिध चाकरी भीख निदान। बहरहाल एक ग्रामीण परिवेश के छोटे किसान परिवार में जन्मे मान्धाता सिंह को इस बात भी खासी फिक्र है कि शहरों और गांवों के बीच विकास के मुद्दे पर असमानता क्‍यो हैं? वे आगे कहते हैं
कि `गांवों में चौबीस घंटे बिजली चाहिए। शिक्षा व स्वास्थ्य भी वे सारी सुविधाएं चाहिए, जो किसी मामूली से शहर को भी उपलब्‍ध हैं। इसी देश के गुजरात के गांव तो शहरों के साथ कदम मिलाकर चल रहे हैं तो क्‍या वहीं के पारंपरिक गांव देश के नब्‍शे से मिट
रहे हैं। बिल्कुल नहीं। पंजाब, हरियाणा के संपन्न गांव खेती के बल पर ही शहरों से आगे हैं। आखिर वह दिन कब आएगा जब लोग एकाकी व्यक्तित्व को एक्‍पोजर भी चाहत शहर भी जगह गांवों में ही रहने का विकल्प चुनेंगे और गांवों भी आबादी का शहरों भी ओर पलायन रुकेगा?´ इस ब्‍लॉग का मूल मंत्र है कि अगर कोई बात गले में अटक गई हो तो उगल दीजिए, मन हल्का हो जाएगा। इसके बैनर पर यही वाक्‍य लिखा हुआ है।
हालांकि महज इसी बात के लिए शुरू किया गया यह ब्‍लॉग कहने को तो फिलहाल हास्य-व्यंग्य के किसी भी ब्‍लॉग भी तरह नजर आता है लेकिन आगे चलकर यह अच्छे-अच्छे सूरमाओं के लिए भी खतरे भी घंटी साबित हो सकता है क्‍योकि भड़ास भी सूली पर कब-कौन लटका हुआ पाया जाएगा, यह कहना बहुत मुकिल है। इसके अलावा मीडिया भी दुनिया में कौन कहां चला गया है, ये खबरें भी इस ब्‍लॉग पर काफी बहुतायत से हैं। फलां शब्‍स, फलां अखबार या फलां चैनल से फलां अखबार या चैनल में ठीकठाक पैकेज पर पहुंच गया है। यानी कि अगर आपको मीडिया भी दुनिया पर नजर रखनी है, तो आपके लिए ये ब्‍लॉग है।
बहरहाल अगर आप किसी मुद्दे पर किसी से नाराज हैं या आप काफी सोचते हैं तो खुद को जैसे चाहें जाहिर करने का मंच यही है। शायद यही वजह है कि भड़ासियों ने अब अपने तेवर दिखाने शुरू कर दिए हैं। रोज कई नए लोग लिख रहे हैं। कुछ लोग
नियमित रूप से लिखने लगे हैं। ये अच्छी बात है, क्‍योंकि दरअसल जब लिखते हैं तो न सिर्फ लिखते हैं बलिक बहुत कुछ नया सीखते हैं, अपने एकाकी व्यक्तित्व को एक्‍पोजर देते हैं, खुद भी भड़ास से दुनिया को रूबरू कराते हैं। कहिए, आप भी बनना चाहते हैं भड़ासी?

1 टिप्पणी:

Dr. Johnson C. Philip ने कहा…

"ब्‍लॉग से जुडे एक लेख के लिए सामग्री जुटाने के दौरान आई परेशानियों को ध्‍यान में रखकर इस ब्‍लॉग को बनाया गया। "

बहुत ही स्तुत्य प्रयास है. लिखते रहें, हम आपके साथ हैं!!