सोमवार, 28 जनवरी 2008

नवभारत टाइम्‍स का फोकस: ब्लॉग का बोलबाला

26 जनवरी को नवभारत टाइम्स दिल्‍ली में फोकस पेज पर ब्‍लॉग की चर्चा हुई। समाचार पत्र का पूरा पेज पीडीएफ फार्मेट में उपलब्‍ध नहीं है। इसलिए मेरे जैसे दिल्‍ली से बाहर रहने वाले ब्‍लॉगिये इन लेखों से चूक गए। अब इन्‍हें यूनिकोड में कनवर्ट किया गया है। आप सभी के लिए यह हूबहू प्रकाशित किया जा रहा है।

इन दिनों इंटरनेट की दुनिया में ब्लॉग यानी चिट्ठा सबसे ज्यादा पढ़ी, लिखी और देखी जाने वाली चीज बन गया है। हर किसी का एक ब्लॉग है या हर कोई एक ब्लॉग बनाना चाहता है। साइबर स्पेस में यह ऐसा हंगामा है, जिसकी तुलना आप इंडियन डेमोक्रेसी से कर सकते हैं। तो हमने सोचा कि क्यों नहीं रिपब्लिक डे के आसपास इस चौपाल की खबर ली जाए, जिसे नए मीडिया का सबसे पॉपुलर कोना माना जाने लगा है।

मजे की बात यह कि इस हंगामे में हम भारतीय भी पीछे नहीं हैं और बिना वक्त गंवाए वह सब कुछ कह देना चाहते हैं, जो हमारे बेहद उपजाऊ दिमागों में भरा है। हिंदी को औजार बनाकर इंटरनेट की आभासी दुनिया में हलचल पैदा कर रहे लोगों के जरिए ही हम यहां ब्लॉगिंग की पड़ताल कर रहे हैं:


ये तेरा ब्लॉग, ये मेरा ब्लॉग
मंगलेश डबराल, वरिष्ठ कवि/पत्रकार
यह अच्छी बात है कि हिंदी में ब्लॉग की दुनिया बढ़ रही है। शौकिया ढंग से चलाए जा रहे ज्यादातर ब्लॉग कविताओं, कहानियों, अनुवादों, टिप्पणियों, मीडिया विमर्श, वाद-विवाद प्रतिवाद, गीत-संगीत, माया संस्मरण स्मृति, मोहल्लेदारी, भाईचारे की भावना और जन्मदिन की शुभकामनाओं से भरे हुए हैं। उनमें एक आपसी लगाव इसलिए भी दिखता है कि उनके आयोजक स्वाभाविक रूप से मिलते जुलते हैं, ब्लॉगों के बारे में पत्र पत्रिकाओं में अनुकूल किस्म की टिप्पणियां भी प्रकाशित होती हैं।

ऐसे में लगता है कि बाजारवादी और वर्चस्ववादी मुख्य धारा के मीडिया के बरक्स यह वैकल्पिक माध्यम आने वाले वर्षों में हाशियों की अस्मिता का एक प्रभावशाली औजार बनेगा, हमारे जैसे देश में जहां मुख्य मीडिया वास्तविक सूचनाओं, तथ्यों और सत्यों को प्रकट करने से ज्यादा छिपाने का काम करता हो, ऐसे वैकल्पिक माध्यम और जरूरी हैं। लेकिन ब्लॉग की अवधारणा और उसके उद्देश्यों के समर्थक इन पंक्तियों के लेखक का एक दुख यह है कि उसे 6 दिसंबर 2007 को बाबरी मस्जिद ध्वंस के पंद्रहवें वर्ष पर ब्लॉगों के हलचल-भरे संसार में सिर्फ 'कबाड़खाना' नामक एक ब्लॉग पर कैफी आजमी की कविता 'दूसरा वनवास' के अलावा कुछ नहीं मिला।

इससे कुछ समय पहले अमेरिकी इंडियन मूल के कवि एमानुएल ओर्तीज की एक अद्भुत कविता 'इस कविता को शुरू करने से पहले दो मिनट का मौन' अमेरिकी ब्लॉगों पर बहुत चर्चा में रहने के बाद 'महल' में प्रकाशित हुई थी, जिसका हिंदी अनुवाद कवि असद जैदी ने किया था, उम्मीद थी कि यह कविता जरूर किसी ब्लॉग पर चिपकी हुई दिखेगी क्योंकि यह 11 सितंबर को अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर और पेंटागन पर हुए हमलों में मारे गए मासूम लोगों के बहाने तीसरी दुनिया में अमेरिका द्वारा किए गए अन्यायपूर्ण हमलों का शिकार हुई मानव जाति के प्रति एक महान शोकांजलि की तरह है और एक हद तक आलोकधन्वा की 'जनता का आदमी' और 'गोली दागो पोस्टर' की याद दिलाती है। लेकिन यह कविता हिंदी के ब्लॉगों से बाहर ही रही, हालांकि अमेरिका और यूरोप में वह सैकड़ों ब्लॉगों पर मौजूद है और 2002 से अमेरिकी सत्ता के विरोधियों-आलोचकों के बीच चर्चित हो रही है।

दरअसल, पहले इराक युद्ध के बाद कम से कम अमेरिका में ब्लॉग की परिभाषा और उद्देश्यों में बड़ा बदलाव आया है और फिर दूसरे इराक युद्ध के दौरान अमेरिका का विरोध करने वालों ने जो ब्लॉग शुरू किए उनके कारण इसे 'ब्लॉग युद्ध' भी कहा गया। पश्चिम के ब्लॉगों ने सत्ताधारियों, बहुराष्ट्रीय निगमों और खासकर अमेरिकी व्यवस्था द्वारा मुख्यधारा के मीडिया में प्रचारित किए गए उन झूठों का पर्दाफाश भी किया है। अमेरिकी ब्लॉग आज एक सांस्कृतिक शक्ति बन चुके हैं। हिंदी ब्लॉगों से फिलहाल ऐसी उम्मीद करना उचित नहीं होगा, लेकिन यह तो संभव है कि वे अपने को मुख्य मीडिया के निरंतर और स्थायी विकल्प के रूप में ढालें और सांस्कृतिक स्तर पर विस्मरण के विरुद्ध काम करें। वर्तमान ब्लॉगों में यह भी नजर नहीं आता, उनमें ज्यादातर हल्का-फुल्का, गपशप का माहौल है या फिर गंभीरता के नाम पर छोटी-छोटी पॉलिमिकल बहसें हैं, जिनमें भड़ास या कुंठाएं निकाली जाती हैं या कोई सनसनीदार साहित्यिक चीज पेश की जाती है।

पिछले दिनों एक ब्लॉग पर दो हिंदी कवियों के बारे में आरोपों-प्रत्यारोपों का ऐसा घमासान रहा कि कई ब्लॉग पाठकों को कहना पड़ा कि भई, बहुत हो गया अब बस कीजिए। इसी तरह एक स्फुट किस्म के समालोचक ने अचानक एक इंटरव्यू में कुछ लेखकों पर अप्रत्याशित किस्म के फतवे जड़ दिए, तो एक लेखक ने त्रिलोचन शास्त्री के परिवार के प्रति मनमानी बातें कह डालीं, जिन्हें विरोध के कारण बाद में ब्लॉग से हटाना पड़ा। कुछ लेखकों के ब्लॉग शायद अनजाने में ही आत्म विज्ञापन का साधन बने हुए दिखते हैं, जिनमें उनकी रचनाओं के साथ उनकी आगामी पुस्तकों के चित्र भी चिपके होते हैं, तो कुछ ब्लॉगों में इस कदर भावुकता है जैसे बिछुड़े हुए भाइयों के लिए 'जहां कहीं हो लौट आओ' के संदेश दिए जा रहे हों। एक ब्लॉग पर मास्टर मदन के एक गीत को इस तरह प्रस्तुत किया गया जैसे वह अनुपलब्ध हो और ब्लॉग ने उसे खोज निकाला हो, तो एक चिट्ठाकार ने हिंदी के एक प्रमुख कवि के व्यक्तित्व पर निरर्थक ही अपनी राय दे डाली। यह सब दुरुस्त है, लेकिन जो असल चीज है, जो किसी ब्लॉग का व्यक्तित्व निर्धारित करती है, वह वैकल्पिक कथ्य कहां है?
हिंदी ब्लॉग तमाम नेकनीयती के बावजूद अभी तक अराजनैतिक, व्यक्तिगत, रूमानी, भावुक और अगंभीर हैं, अगर मोबाइल फोनों के एसएमएस (शॉर्ट मैसेजिंग सर्विस) की तर्ज पर उन्हें एलएमएस (लांग मैसेजिंग सर्विस) कहा जाए तो क्या अतिशयोक्ति होगी, खासकर जब यह असंतोष ब्लॉग का एक गहरा पक्षधर व्यक्त कर रहा हो? क्या ब्लॉगों से गंभीर, वैचारिक, बौद्घिक होने की मांग करना अनुचित होगा, क्या यह कहना गलत होगा कि उन्हें उर्दू के सतही शायर चिरकीं की मलमूत्रवादी गजलों, लेखकों की निजी कुंठाओं और पारिवारिक तस्वीरों की बजाय एमानुएल ओर्तीज की कविताएं, एजाज अहमद की तकरीरें और तहलका द्वारा ली गई गुजरात के कातिलों की तस्वीरें जारी करनी चाहिए? संक्षेप में, ब्लॉगों को मुख्य मीडिया से ज्यादा जिम्मेदार होना होगा ताकि वे 'ब्लॉग-ब्लॉग' खेलने तक सीमित न रह जाएं।

1: हम सबका मोहल्ला
अविनाश, मॉडरेटर, मोहल्ला

साल भर पहले मोहल्ला बस यूं ही शुरू किया था। हम सबके पास अपनी बात कहने के लिए अखबार और टीवी का मंच था, लेकिन वह सब औपचारिक था। यहां बहुत कुछ कहने के बाद भी बचे हुए अनकहे के लिए कोई कागज चाहिए था और हिंदी की पत्रिकाएं ये कमी पूरी नहीं कर पा रही थीं।

उस वक्त नारद एग्रीगेटर था, जो हिंदी ब्लॉग के फ्लैग दिखलाता था। लेकिन उसके मॉडरेटर्स ज्यादातर कट्टर हिंदू सोच के लोग थे और सांप्रदायिक सौहार्द की कहानियों पर उनकी भवें तन जाती थीं। उनके खिलाफ लंबी लड़ाई के दौरान मोहल्ला को बड़ा जनसमर्थन मिला। फिर नया ज्ञानोदय नाम के एक साहित्यिक विवाद ने इसे और लोकप्रिय बनाया। कई बार इस ब्लॉग को बैन करने की भी हवा चली और कई बार मुकदमे की तैयारियां भी हुई। बहरहाल, अब कहानी बहुत आगे बढ़ चुकी है।

बीते नवंबर के आसपास हमने मोहल्ला को कम्युनिटी ब्लॉग में बदलने की ठानी। एक बन चुकी इमारत को समाज को सौंपने की पुरानी लोकतांत्रिक रवायत कायम रखते हुए मोहल्ला कम्युनिटी ब्लॉग हो गया और उदय प्रकाश और कुर्बान अली जैसे हिंदी के बड़े नाम इसके मेंबर बने। फिलहाल, मोहल्ला के करीब 50 मेंबर हैं और हमारी ख्वाहिश हिंदी में लोकतांत्रिक और आधुनिक मूल्यों में भरोसा करने वाले हजारों लोगों को एक मंच पर लाने की है।

2: रेडियो की यादें
यूनुस खान, मॉडरेटर, रेडियोनामा

रेडियोनामा के बारे में बात करनी हो तो पहले रेडियोवाणी का जिक्र करना होगा। दरअसल, अप्रैल 2007 की एक शाम म़ुझे रेडियोवाणी शुरू करने का आइडिया आया। म्यूजिक एप्रीसियेशन का जुनून बहुत कच्ची उम्र से रहा है, गाने सुनना और उनका विश्लेषण करना। रेडियोवाणी का आइडिया इसी जुनून की देन है। रेडियोवाणी के जरिए कई रुचियों वाले कई लोग मिले। ऐसे लोग जिनका रेडियो से कभी नाता रहा था, एक श्रोता के रूप में और कुछ ऐसे जिनका रेडियो से एक प्रेजेन्टर के रूप में नाता था या है। फिर एक दिन हम लोगों को ख्याल आया कि क्यों न एक ऐसा ब्लॉग शुरू किया जाए, जिसमें रेडियो की बातें हों। रेडियो की यादें। रेडियो से जुड़े जज्बात और ग्यारह सितंबर 2007 को रेडियोनामा का आगाज हुआ।

रेडियोनामा की टैग लाइन है, बातें रेडियो की, यादें आपकी। यानी रेडियो की यादों और बातों का ब्लॉग। ये रेडियो की स्मृतियों और विमर्श का संगम है। हालांकि, अभी स्मृतियों वाला पक्ष प्रबल है, पर आगे चलकर हम रेडियोनामा में कुछ नई बातें शामिल करना चाहते हैं। जैसे निजी एफएम चैनलों पर विमर्श, उनके आने से किस तरह सामाजिक परिदृश्य बदला है। एक माध्यम के रूप में रेडियो की जो ताकत है उस पर गंभीर विमर्श की जरूरत है। रेडियोनामा के समुदाय में तकरीबन बीस लोग शामिल हैं और लगातार इनकी तादाद में इजाफा हो रहा है।
3: कह दो जो दिल में है
यशवंत, मॉडरेटर,भड़ास

जैसा कि ब्लॉग के नाम से ही जाहिर है, यह ब्लॉग मैंने भड़ास निकालने के लिए ही शुरू किया था। काफी वक्त से देख रहा था कि ब्लॉग की दुनिया में बहुत हलचल हो रही है। मैंने सोचा कि क्यों ना एक ब्लॉग बनाया जाए। नाम भी कुछ हटकर होना चाहिए था। जब इसकी शुरुआत की तब यह बहुत सीमित था। अब इसके 180 सदस्य हो गए हैं। हमने भड़ास का टारगेट ग्रुप रखा हिन्दी मीडिया के लोग। जो बातें वह ऑफिस या घर पर नहीं कह सकते, वह ब्लॉग में कह सकते हैं और अपने मन की भड़ास निकाल सकते हैं।

जैसा कि ब्लॉग की टैग लाइन ही है कि 'अगर कोई बात गले में अटक गई हो तो उगल दीजिए, मन हल्का हो जाएगा...' हिन्दी मीडिया में कई ऐसी चीजें हो रही हैं, जिसकी वजह से इससे डायरेक्ट-इनडायरेक्ट जुड़े लोग कुंठाग्रस्त हो रहे हैं। वही कुंठा निकालने का माध्यम है भड़ास। ब्लॉग के जरिए हम एक दूसरे की दिक्कत के हमसफर बनते हैं और उसका समाधान निकालने की कोशिश भी करते हैं। हौसला भी बंधाते हैं कि एक-दूसरे की लड़ाई में हम साथ हैं। इस ब्लॉग को हिन्दी मीडिया के सीनियर लोग भी खूब पढ़ते हैं। जिससे हमारा मकसद भी पूरा हो जाता है। ब्लॉग के जरिए हम अपनी बात उन तक पहुंचाकर उन्हें आइना दिखाते हैं। शायद पढ़कर वह कुछ सुधार करें।


4: काम का है रिजेक्ट माल

दिलीप मंडल, मॉडरेटर

ब्लॉग की दुनिया से परिचय तो पुराना था लेकिन इंग्लिश ब्लॉग के जरिए। हिन्दी ब्लॉगिंग को दूर से ही देख रहा था। कुछ दिनों तक दूसरे ब्लॉग्स में लिखता रहा उसके बाद ख्याल आया कि क्यों ना खुद का ही मंच बना लिया जाए। बस सिलसिला चल पड़ा। जब रिजेक्ट माल की शुरूआत की थी तब दिमाग में यह ख्याल था कि जिन लेखों को मेन स्ट्रीम में जगह नहीं मिलेगी हम उन्हें एक मंच मुहैया कराएंगे। जो रचनाएं नकार दी गई हों उनकी गूंज दुनिया तक पहुंचाएंगे। लेकिन जो हमने सोचा था अभी वह कर नहीं पा रहे हैं। भविष्य में ऐसा करने की योजना है।

मुझे लगता है कि ब्लॉग एक सशक्त माध्यम है अपनी बात कहने का। इसमें हम पाठकों से सीधे संवाद कर सकते हैं। हिन्दी ब्लॉग की अभी शुरुआत हुई है। अभी जिस तरह की ब्लॉगिंग हो रही है उसे देखकर लगता है कि अभी असली नायक और नायिकाओं का आना बाकी है। खेल तो अभी शुरू हुआ है। वैसे हिन्दी ब्लॉगिंग का भविष्य इस पर टिका है कि हिन्दी का भविष्य कैसा है। खासकर कंप्यूटर के इस्तेमाल में अगर हिन्दी की ताकत बढ़ती है तो इसका फायदा हिन्दी ब्लॉगिंग को भी मिलेगा ही।

5: अनूठी रचनाओं का 'कबाड़'
अशोक पांडे, मॉडरेटर, कबाड़खाना

कबाड़ेखाने की विविधत शुरुआत सितम्बर, 2007 में हुई थी और मुझे तब कतई पता नहीं था कि इसके साथ मुझे करना क्या है। बस इतना ही तय था कि मेरे पास बहुत सारा ऐसा था, जिसे मैं बाकी लोगों के साथ साझा करना चाहता था। शुरू करने के बहुत जल्द ही इसे एक सामुदायिक मंच बनाने का निर्णय लिया और एक एक कर के मैंने कुछ परिचितों को सदस्यता लेने का निमंत्रण दिया।

यह अच्छा फैसला साबित हुआ और आज हमारे ब्लॉग में 25 से ज्यादा 'कबाड़ी' हैं। अपनी मूल प्रकृति में कबाड़खाना किसी पिटारे जैसा है, जिसके भीतर जीवन की विविधता से सराबोर कई तरह का कबाड़ है और मैं जानता हूं अभी यह बिल्कुल शुरूआत के दौर से गुजर रहा है। एक साल बाद इसकी शक्ल कैसी होगी मैं नहीं कह सकता। शुरू में केवल परिचितों को इस बारे में पता था और उन्होंने इस पसंद किया और अमूल्य सुझाव दिए। अब जिन जिन जानी अनजानी जगहों से लोगों की टिप्पणियां कबाड़खाने में आती हैं, मुझे इस खुशफहमी को बनाए रखने में जरा भी हिचक नहीं है कि शायद लोगों को इसका कूड़ा अपनेपन से भरपूर लगता है। हमारी कोशिश रहेगी कि इसकी गुणवत्ता लगातार सुधरती रहे।

कोई टिप्पणी नहीं: