शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2008

भास्‍कर की वेब पर रतलामीजी और इरफान का जिक्र


दैनिक भास्‍कर की वेबसाइट में ‘गणतंत्र के झंडे में लपेटकर, प्रिय भारत की माटी में” शीर्षक से एक लेख है। इसमें हिंदी ब्‍लॉग जगत का उल्‍लेख है। इसमें श्री रवि रतलामीजी इरफान और ओमप्रकाश तिवारी का जिक्र है। यह आलेख विधान निगम ने लिखा है, वो मप्र में कही रिपोर्टर हैं। पर यहे आलेख प्रिंट में किस एडिशन में छपा इसकी जानकारी नहीं। क्‍यूंकि जयपुर में यह दिखाई नहीं दिया। वैसे वाडनेकर साहब हमारी कुछ मदद कर सकते हैं। यदि किसी को प्रिंट एडिशन की जानकारी हो तो तुरंत सूचित करे।
आपकी सुविधा के लिए यह पूरा लेख हूबहू दिया जा रहा है।
गणतंत्र के झंडे में लपेटकर, प्रिय भारत की माटी में
विधान निगम
Thursday, February 14, 2008 05:49 [IST]
ब्लॉग यायावरी. हिंदी ब्लॉग जगत हिंदी साहित्य और आलोचना का समानांतर प्लेटफॉर्म बनने की ओर तेजी से कदम बढ़ा रहा है। उससे यह धारणा गलत साबित होती जा रही है कि हिंदी में नई पीढ़ी के अच्छे कवियों और लेखकों का अभाव है। इन्हें पढ़कर कोई भी समझदार व्यक्ति यह सोचने पर मजबूर हो सकता है कि हिंदी साहित्य प्रकाशन लेखन माफिया की गिरफ्त में तो नहीं..? अगर ऐसा न होता तो साहित्य के नाम पर हिंदी में सिर्फ जमे हुए बूढ़े (लेकिन अच्छे भी) और घटिया नवांकुर लेखकों की किताबें नजर न आतीं।
इस हफ्ते कई ब्लॉग्स पर अच्छी रचनाएं देखने को मिलीं। रवि रतलामी ने अमेरिका में रहने वाली रचना श्रीवास्तव की कविता तेरे बिना पोस्ट की है। आप भी पढ़िए ..
एक शाम जब हम बैठे थे साथ थाम के मेरा झुर्रियों भरा हाथ तुमने कहा था.. ऐ जी हो गए कितने सालचलते-चलते यूं ही साथ35 साल है न मैंने होले से कहा तुम मुस्कुरा दींफिर चहक के बोलीं कौन-सा दिन था सबसे प्याराजो बीता मेरे साथ, मैं चुप रहा कुछ तो बोलो तुमने तुनक के कहाअरे! मेरी पगली तेरे इस अजब सवाल का कोई जवाब दे कैसे ?दुआओं भरी पोटली हो जब सामने कोई एक दुआ उनमें से चुने कैसे..?तन्हा हूं, तन्हाई से डरता हूंउदास हुआ नहींजब बच्चे घर से उस वक्त टूटा नहींजब नाता तोड़ा हमसे बिखरा नहीं तब भी जब पोतों को दूर रहने को कहा गया हमसे सब कुछ सहा पर अब तेरे जाने के बाद बिखर गया हूंअकेला तेरी यादों के साथ रह गया हूं।इरफान के ब्लॉग पर भी बहुत अच्छी कविता मिलेगी.. ‘मुलाकात’फिर तुमने अपने ठंडे पोरों से छुआ बुधवार था और आसमान से नमी की चादर हमें ढंकने आई...उस नीम ठंड में हम सतह की हवा को हलका बनाते रहे।
ओमप्रकाश तिवारी ने अपने ‘मीडिया नारद’ ब्लॉग पर एक विचारोत्तेजक लेख पोस्ट किया है। इसमें यह सवाल उठाया गया है कि फिल्मी लेखक और गीतकार को साहित्यकार का दर्जा क्यों नहीं मिलता? उन्होंने बहुत तार्किक ढंग से अपनी स्थापना दी है कि फिल्मी लेखक और गीतकार बाजार नियंत्रित हैं लेकिन साहित्यकार नहीं। जैसे सेल्समैन और सृजनकर्ता की तुलना नहीं की जा सकती वैसे ही इनकी भी बराबरी नहीं की जा सकती। साहित्यकार मूल्यों का सृजन करता है जबकि फिल्मी लेखक सृजित मूल्यों को बेचता है।
और अंत में ..
एक कविता ढाई आखर पर नसीरुद्दीन ने तसलीमा नसरीन की दो ताजा कविताएं पोस्ट की हैं ये कविताएं तसलीमा ने कैद ए तन्हाई में बांग्ला में लिखी थी जिनको हिंदी में ढाला है पत्रकार कृपाशंकर ने। ये कविताएं बताती हैं कि हम किस दौर में रह रहे हैं..
‘जिस घर में रहने को मुझे बाध्य किया जा रहा है’इन दिनों मैं ऐसे एक कमरे में रहती हूं,जिसमें एक बंद खिड़की है,जिसे खोलना चाहूं, तो मैं खोल नहीं सकती खिड़की मोटे पर्दे ढंकी हुई है. चाहूं भी तो मेैं उसे खिसका नहीं सकतीइन दिनों मैं ऐसे एक कमरे में रहती हूं चाहूं भी तो खोल नहीं सकती, उस घर के दरवाजे..वे भी शायद होंगी उस दिन गणतंत्र के झंडे में लपेटकर, प्रिय भारत की माटी में,कोई मुझे दफन कर देगा। शायद कोई सरकारी मुलाजिम खैर, वहां मुझे भी नसीब होगी, एक अल्प कोठरी। उस कोठरी में लांघने के लिए, कोई दहलीज नहीं होगीवहां भी मिलेगी मुझे एक अदद कोठरी,लेकिन, जहां मुझे सांस लेने में कोई तकलीफ नहीं होगी।

1 टिप्पणी:

Sanjay Karere ने कहा…

जिस लेख का आपने जिक्र किया है वह तो पोर्टल पर ही है. दो दिन पहले भोपाल और मप्र के अन्‍य संस्‍करणों में दस्‍तक का पूरा पेज ब्‍लॉग पर आया था.. देखना चाहें तो यहां लगा रखा है...
http://sanjay-uvach.blogspot.com/2008/02/blog-post_13.html